डॉ. कविता भट्ट 
(हे न ब गढ़वाल विश्वविद्यालय,श्रीनगर
गढ़वाल उत्तराखंड )
बेला – आजन्म आजादों की
साहब! 
खंडित प्रतिमानों के
मोल न पूछो 
शेखर-चन्द्र रखे आजादी
के युग वे      
उनके कैसे गूँजे थे वे
बोल न पूछो !
खुली हवा में साँस ली
जिन्होंने पहली     
वे अब कहते हैं; ये सब
झोल न पूछो 
छत पर रखते गमले सुंदर
फूलों वाले  
नींव के पत्थर कितने
अनमोल न पूछो!
राष्ट्र-भावना दम भर तो
दम भर ले  
संभावना के दाम और खोल
न पूछो 
लोकतंत्र- कर्त्तव्य
स्वाहा अधिकारों में 
अब इस बजते ढोल की पोल
न पूछो !
बिन संघर्ष मिले इन्हें
शिक्षा के मन्दिर
वीर सपूतों के बलिदानों
के तोल न पूछो   
चक्रव्यूह में फँसे
युवा; कैसा देश कैसा प्रेम? 
विष नारों में घुला;
हालत डाँवाडोल न पूछो !
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