निम्नलिखित लिंक को क्लिक करके डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री' की वार्त्ता का अवलोकन कर सकते हैं-
डॉ . कविता भट्ट
सबसे अनमोल उपहार
जो कभी मेरा न हो सका
कुछ दिनों के लिए ही
सही
मुझे लगा कि
यह सब मेरा ही है
है ना आश्चर्य कि
मेरा न होकर भी मेरा
ही है
मुझे ऐसी अनुभूति होती
है
मेरे मायके के गाँव के
कुछ सीढ़ीदार खेत
माँ! ये खेत - साक्षी
हैं
तेरे और मेरे संयुक्त
संघर्ष के
ये ऐतिहासिक अभिलेख
हैं
पहाड़ी महिला के पसीने
के
जो पसीना नहीं, लहू था।
इन खेतों ने देखा हमें
रोते- हँसते, खिलखिलाते
बाजूबंद - माँगुळ गुनगुनाते
घसियारी गीत गाते
जब भी कोई समस्या
हुई पहाड़- सी भारी
जब भी घिरे तू और मैं
किसी अवसाद में
मुझे और तुझे इन खेतों
ने सँभाला
हम इनकी गोद में सिर
रखकर
घंटों तक रो लेते थे
किसी देवी के जैसे
सहलाया, पुचकारा, समझाया
इन खेतों की माटी ने
हमें
कि जीवन उतार- चढ़ाव भरा सही
लेकिन पहाड़ी महिला
का जीवन
किसी तपस्विनी या ऋषिका
का
या किसी देवी का
पुनर्जन्म/अवतरण होता
है
इसलिए तुम सामान्य नहीं
असाधारण हो।
जब भी खेत की माटी ने
हमें यह कहकर धीरज बँधाया
हम सुबकते- सिसकते
पुनः जीवन की मुख्य
धारा में
लौट गए,
संघर्षों को हमने
अपना धर्म और कर्म बनाकर
जीना सीखा, और हम उदाहरण बन गए
लोग कहने लगे
महिला पहाड़ की
देवी है, तपस्विनी है
है सर्व शक्तिशालिनी
नंदा भवानी।
लेकिन माँ आज मेरा मन
फिर से विचलित है ,
द्रवित है , बहुत दुःखी है
ये खेत जो हमें धीरज
बँधाते थे
जिनको सारे संसार का
दुःख सुनाकर
हम स्वयं मुक्त हो जाते
थे
इन खेतों के बीठे, गाड़ - गदेरे
कूलें, भीमल खड़ीक आदि के पेड़
इनके किनारे के चारागाह
सुना है –
किसी दबंग माफिया ने
हथिया लिये हैं
सुना हमारे दिल्ली में
बसने के बाद
नक्शों में बदलाव करके
कुछ बहुरूपियों ने
चंद कौड़ियों के लिए
हमारे इन खेतों को
सौंप दिया है
माफिया के हाथों में।
अब तुम ही बताओ माँ
हम अपना अवसाद किसको
सुनाएँगे ?
और अपनी भावी पीढ़ियों
को क्या उपहार देंगे !!
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डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
राजमार्ग को लगा
मैं गाँव के कपोलों पर लिख
सकता हूँ
अनंत जीवन, प्रसन्नता और सपने
गाँव की मुस्कान को
मैं ऐतिहासिक गीत में परिवर्तित
कर दूँगा
स्वर लहरियाँ गूँजेगी
मंदिर की घंटियाँ
घोलेंगी मधुमिश्रित शांति
खेतों में लहलहाएँगी
धान, सरसों, कोदू, कौणी
पंचायती चौंतरे पर हुक्के
गुड़गुड़ाएँगे
पशुकुल की गलघंटियाँ खनकेंगी
थड़िया, चौंफलें और मंडाण
घोलेंगे वातावरण में जीवंतता
मदमाती बालाएँ खिलखिलाती
गाँव में विचरण करेंगी
साड़ियों के पल्लू लहराते
हुए।
छुटके खेलेंगे पिट्ठू - राज
- पाट - गारे
जाने क्या - क्या और भी
पंचायती विद्यालय में
पहाड़े रटने के स्वर
गूँजेंगे गगनभेदी नारे
स्वतंत्रता दिवस पर-
“भारत माता की जय”
गणतंत्र दिवस होगा
विशेष लड्डुओं के डिब्बों
से मीठा
रंग- बिरंगे सपने लिये
राजमार्ग बढ़ा गाँव की ओर
लेकिन यह क्या
उसके पहुँचने से पहले ही
गाँव अंतिम साँसें गिन रहा
था
उसकी बूढ़ी हड्डियाँ मरणासन्न
थी
अब आए हो, जब मेरा यौवन हो चुका विदा
अब नहीं बचूँगा, कितना भी औषध करो
किंतु फिर भी
राजमार्ग ने आँखों की चमक
नहीं खोई
बोला, “सच करूँगा तुम्हारे सपने
क्योंकि मुझे बताया गया है
और सच है
'भारतमाता ग्रामवासिनी!'
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चम्पा के फूल
डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
प्रेमी ने बाहें फैलाते
हुए कहा -
सुनो सुनैना
मैं बाहर खड़ा हूँ
हाथों में
कुछ चंपा के फूल लिये
हुए,
फूल जो तुम्हारी घुँघराली
लटों पर
सजकर इतराना चाहते हैं,
फूल जो विश्वास दिलाना
चाहते हैं-
कि प्रेम ऐसा भाव है,
जो अगाध है, अनंत है:
आओ इन फूलों को विश्वास
दिलाओ
कि ये तुम्हारे पावन
प्रेम के योग्य हैं।
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भूरी पुतली- से बादल / डॉ. कविता भट्ट
आएँगे कब और कैसे बादल
बरखा की बूँदों को लेकर
शीतलता के घरौंदों को लेकर
चुभती धूप का अनुभव भुलाने
काली घनघोर दिशाओं को सहलाने
आएँगे कब और कैसे बादल
रेशम का सा ओढ़े आँचल
सम्भवतः स्पर्श हुआ मलमल
बेला साँझ की सुरभित स्वप्निल
घुमड़-घुमड़ और मचल-मचल
लाएँगे कब और कैसे बादल
पेड़ों की सरसराती पत्तियों
पर
चाँदी की चमकती बूँदें
बिखेरकर
अपने कोमल तन को पिघलाकर
जल लाएँगे कब और कैसे बादल
कभी-कभी तो तरसा जाते हैं
मेरे मन को चोल़ी पंछी-सा
भीगे स्पर्श की कल्पनाएँ
लेकर
मेरे मन को कल्पनाओं को
साकार कर
आएँगे कब और कैसे बादल
किसी रूपसी के काले केशों-से
किन्हीं नैनों के सुन्दर
काजल-से
और भूरी पुतलियों के कजरारे
आभास से
भूखण्डों के नीले पर्वत-
शिखरों पर
जलधारा के श्वेत सोते
लाएँगे कब कहाँ से बादल
ब्रज अनुवाद- रश्मि
विभा त्रिपाठी
ऐहैं कबुक अरु काहिं बदरा
मेहा की बूँदनि लै
सियराई के घरौंदनि लै
कुचति घाम कौ अनुभव बिसराइबे
कारी घनघोर दिसनि सहराइबे
ऐहैं कबुक अरु काहिं बदरा
रेसम कौ सौ ओढ़ैं अँचरा
जु पै अनछुयौ भयौ मलमल
संझा बिरिया गमकति सपुने नाई
घुमड़ि घुमड़ि अरु आरि करत
ल्यावैंगे कबुक अरु काहिं बदरा
रूखनि की सरसरावति पातिनि पै
रूपे की चमकति बुँदियाँ बगराइ
अपुने अल्हर आँगु कौं टिघराइ
जल ल्यावैंगे कबुक अरु काहिं बदरा
कभऊँ कभऊँ तौ तरसाइ जावत
मोरे हिय कौं चोली पच्छी सौ
भींजे परस की कल्पना लै
मोरे हिय की कल्पना कौं साकार करि
ऐहैं कबुक अरु काहिं बदरा
काऊ रूपसी की कारी अलकन नाई
कोऊ नैननि के सुघर अंजन नाई
अरु भूरी पुतरिन के कजरारे आभास नाई
भू खण्डन की लीली परबत चोटिनि ऊपर
जलधारा के सेत सोता
ल्यावैंगे कबुक किततैं बदरा।
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रोमांस के
न हॅंसी आती है
नग्नता पर!
मेरे कानों में गूँजती
हैं
चीखें..
युद्ध में अनाथ हुए
बच्चों की
और
सिसकियाँ
वक्षस्थल ढाँपने को
प्रयासरत..
अर्ध-जीवित स्त्रियों की।
धिक्कारते हैं
दूर तक बिखरी राख को
थरथराती साँसों से छूते हुए बुज़ुर्ग!
बिना सपनों की
असंख्य ऑंखें।
उन ऑंखों के
संघर्षरत..
प्रश्न!
आजकल
मुझे
नींद के साथ-साथ
सपने भी नहीं आते!
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रश्मि 'लहर' इक्षुपुरी कॉलोनी < लखनऊ -226002
2-अनिमा दास
सबकुछ जैसे कुहासे में
हो रहा अदृश्य
नहीं होता आरंभ
किंतु अंत होता है
प्रत्येक इच्छा का..
इसी कुहासे के आवरण पर
कई अस्पष्ट अक्षर
कुछ कहते हुए
हो जाते हैं विलीन..
मृदुल स्वर्णिम रश्मिओं के
उष्ण स्पर्श से...
कुहासा होता विस्तृत...
यहाँ से...ओ..ओ.. वहाँ तक!!
किंतु नहीं स्पर्श कर पाता
मन के अतल गह्वर को...
शिथिल अंधकार में
वाष्परुद्ध होता.. क्षितिज को..
हाँ.. वह क्षितिज..
जो मुझे तुममें तल्लीन होने की
एक सीमारेखा खींचता है..
कोहरे में एक कहानी
एक कविता.. एक उपकथा
बिंदुओं में होती विभाजित..
जिसमें पुनः हम
होते अपरिचित किंतु
रहते अत्यंत समीप...
इस शीतल सानिध्य में
दो हंस.. कल्प से कल्प
करते विचरण...
एक गगनस्पर्शी प्रश्न?
अथवा एक प्रश्न प्रपात?
अथवा प्रश्नों की निहारिका?
क्या ग्रहाणुपुंज है अथवा,
है एक विशाल द्रुम-कोटर में
शायित कोई कालसर्प?
हम हो रहें निशब्द..
निस्तब्ध...अचेत.. अदृश्य...!!
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……
उस दिन पथ ने
पथिक को पाती लिखी
बेमानी लिखी न झूठ
सावन-भादो के गरजते बादल
सुबह की गुनगुनी धूप लिखी
मीरा के जाने-पहचाने पदचाप
बाट जोहती आँखें
वही विष के प्याले लिखे
पनिहारिन के पायल की आवाज़
कुछ काँटे कुछ पत्थर लिखे
थोड़े फूल और थोड़ी छाँव
लिखी
और लिखा
स्मृतियों का पाथेय
प्रतीक्षा को
प्रेम के गहरे रंग में रंग
देता है
तुम प्रमाण मत देना
क्योंकि जितनी झाँकती है
प्रीत
किवाड़ों और खिड़कियों से
उतनी ही तो नहीं होती
मौन ने भी लिखे हैं कई गीत
कई कविताएँ लिखी हैं
अबोलेपन ने भी।
2. उदासियाँ /अनीता सैनी
मरुस्थल से कहो कि वह
किसके फ़िराक़ में है?
आज-कल बुझा-बुझा-सा रहता
है?
जलाती हैं साँसें
भटकते भावों से उड़ती धूल
धूसर रंगों ने ढक लिया है
अंबर को
आँधियाँ उठने लगीं हैं
सूखी नहीं हैं नदियाँ
वे सागर से मिलने गईं हैं
धरती के आँचल में
पानी का अंबार है कहो कुछ पल
प्रतीक्षा में ठहरे
बात कमाने की हुई थी
क्या कमाना है?
कब तय हुआ था?
उदासियों के भी खिलते हैं
वसंत
तुम गहरे में उतरे नहीं, वे तैरना भूल गईं।
….
3. खण्डहर/
अनीता सैनी
चलन को पता है
समय की गोद में तपी औरतें
चूड़ी बिछिया और पायल टूटने
से
खण्डहर नहीं बनतीं
उन्हें खण्डहर बनाया जाता है
चलन का
जूते-चप्पल पहनकर
घर से कोसों-दूर
सदियों तक एक ही लिबास में
अतृप्त...
भूख-प्यास से भटकना
जल की ख़ोज
रहट का मौन सूखता पानी
कुएँ की जगत पर बैठ
उसका
खण्डहर, खण्डहर … चिल्लाते रहना
खण्डहर, खण्डहर …का गुंजन ही
उसे गहरे से तोड़कर बनाता
है
खण्डहर ।
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