बुधवार, 28 अक्टूबर 2020

174-ओ समय !

 डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री'


ओ समय ! 
तुझे  कहते सभी बलवान, 
मैं भी पहाड़ी नदी हूँ,

यदि तू है कठोर चट्टान l 

तेरा कठोर सीना चीर, 
बलवती होकर गुजरूँगी, 
क्रूर परतों को मिटा,
हस्ताक्षर करके ही रहूँगी l

मेरी लहरों पर लिखी, 
पंक्तियाँ उदास सही आज,
मेरा होगा कल- मीलों चल, 
सागर तक पहुँचकर ही रहूँगी l








रविवार, 25 अक्टूबर 2020

173

 

विजयादशमी शुभकामनाओं सहित:

किसे जलाया जाए?

डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

 

जब सरस्वती दासी बन; लक्ष्मी का वंदन करती हो। 

रावण के पदचिह्नों का नित अभिनन्दन करती हो।

 

सिन्धु-अराजक, भय-प्रीति दोनों ही निरर्थक हो जाएँ   

और व्यवस्था सीता- सी प्रतिपल लाचार सिहरती हो।

 

अब कहो राम! कैसे आशा का सेतु बनाया जाए?

अब बोलो विजयादशमी पर किसे जलाया जाए।

 

जब आँखें षड्यंत्र बुनें; किन्तु अधर मुस्काते हों,


भीतर
विष-घट, किन्तु शब्द प्रेम-बूँद छलकाते हों। 

 

अनाचार-अनुशंसा में नित पुष्पहार गुणगान करें

हृदय ईर्ष्या से भरे हुए, कंठ मुक्त प्रशंसा गाते हों।

 

क्या मात्र, रावण-दहन का झुनझुना बजाया जाए?

अब बोलो विजयादशमी पर किसे जलाया जाए

 

विराट बाहर का रावण, भीतर का उससे भी भारी;

असंख्य शीश हैं, पग-पग पर, बने हुए नित संहारी।

 

सबके दुर्गुण बाँच रहे हम, स्वयं को नहीं खंगाला। 

प्रतिदिन मन का वही प्रलाप, बुद्धि बनी भिखारी।  

 

कोई रावण नाभि तो खोजो कोई तीर चलाया जाए।

अब बोलो विजयादशमी पर किसे जलाया जाए


शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2020

172-मेरी अम्मा

प्रो .संजय अवस्थी,

 

मेरी माँ, जिन्हें हम अम्मा कहते थे,

बीच से निकली  माँ पर, शोभता सिंदूर।


माथे
पर बड़ी लाल बिंदी, सर पर पल्लू,

मन मोहती, बिना फाल की साड़ी।

माहुर रँगे  पाँ में, सुंदर लगती खटारा स्लीपर,

गले में चैन , कानों में स्वर्ण फूल, शृंगार,

कोई अदा, बस सादगी का शृंगार,

सबसे सुंदर, कितनी सुंदर थीं अम्मा,

यदि कुछ तुम-सा हो जाता, मैं,

देवत्व सही, संन्यासी सा सुंदर होता मैं।

दूर कहीं दिखती तुम,

हाथों में गृहस्थी के भार के थैले,

मैं दौड़ता, नन्हे पाँवों से,

बोझ से बोझिल तुम, फिर भी

मुझे पा मुस्कुराती।

पर काम बाकी है

श्यामा को चारा दे,

थैले की गृहस्थी सहेजती।

कभी थकती तुम,

काश में तुम-सा दशांश भी कर पाता,

तो कर्मवीर कहलाता।

चुन- चुनकर फूलों से सजाती, कन्हाई को,

रोज नए भोग चढ़ाती, हरि को,

सबसे जुदा, आँखें बंद,

कितनी माला लेती , प्रभु नाम।

इस भक्ति का एक अंश भी पाता,

तो मैं मुमुक्षु बन जाता।

अम्मा, आज भी यादों में है,

तुम्हारा मधुर स्वर में गाना।

बातों -बातों में मध्यम से,

तार सप्तक में जाना।

आहत से अनाहत जगाना।

काश मैं मध्यम का पंचम ही पा जाता,

तो मैं भी गायक बन जाता।

कल ही की तो बात है,

तुम कह रही थी कहानी,

बालों में  उँगलियाँ, फेरती हुए।

मेरे होश गुम, शायद नींद आने लगी अम्मा,

मुस्कुराकर बोलीं, बस, बाकी कल।

पर सुबह, आँखें बंद, मुस्कुराहट वही।

बार -बार बुलाने  पर, नहीं बोलती अम्मा।

काश, उस रात की मुस्कुराहट का अर्थ जानता,

तो मैं भी अपनी यादों को अमर कर जाता।