रोमांस के
न हॅंसी आती है 
नग्नता पर!
मेरे कानों में गूँजती
हैं 
चीखें..
युद्ध में अनाथ हुए 
बच्चों की
और
सिसकियाँ
वक्षस्थल  ढाँपने को 
प्रयासरत..
अर्ध-जीवित स्त्रियों की।
धिक्कारते हैं 
दूर तक बिखरी राख को 
थरथराती  साँसों से छूते हुए बुज़ुर्ग!
बिना सपनों की
असंख्य ऑंखें।
उन ऑंखों के 
संघर्षरत.. 
 प्रश्न!
आजकल 
मुझे 
नींद के साथ-साथ 
सपने भी नहीं आते!
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रश्मि 'लहर' इक्षुपुरी कॉलोनी < लखनऊ -226002
2-अनिमा दास 
सबकुछ जैसे कुहासे में 
हो रहा अदृश्य 
नहीं होता आरंभ 
किंतु अंत होता है 
प्रत्येक इच्छा का..
इसी कुहासे के आवरण पर 
कई अस्पष्ट अक्षर 
कुछ कहते हुए 
हो जाते हैं विलीन..
मृदुल स्वर्णिम रश्मिओं के 
उष्ण स्पर्श से...
कुहासा होता विस्तृत...
यहाँ से...ओ..ओ.. वहाँ तक!!
किंतु नहीं स्पर्श कर पाता 
मन के अतल गह्वर को...
शिथिल अंधकार में 
वाष्परुद्ध होता.. क्षितिज को..
हाँ.. वह क्षितिज..
जो मुझे तुममें तल्लीन होने की 
एक सीमारेखा खींचता है..
कोहरे में एक कहानी 
एक कविता.. एक उपकथा 
बिंदुओं में होती विभाजित..
जिसमें पुनः हम 
होते अपरिचित किंतु 
रहते अत्यंत समीप...
इस शीतल सानिध्य में 
दो हंस.. कल्प से कल्प 
करते विचरण...
एक गगनस्पर्शी प्रश्न?
अथवा एक प्रश्न प्रपात?
अथवा प्रश्नों की निहारिका? 
क्या ग्रहाणुपुंज है अथवा,
है एक विशाल द्रुम-कोटर में 
शायित कोई कालसर्प?
हम हो रहें निशब्द..
निस्तब्ध...अचेत.. अदृश्य...!!
-0-
……
उस दिन पथ ने 
पथिक को पाती लिखी 
बेमानी लिखी न झूठ  
सावन-भादो के गरजते बादल 
सुबह की गुनगुनी धूप लिखी 
मीरा के जाने-पहचाने पदचाप 
 बाट जोहती आँखें 
वही विष  के प्याले लिखे
पनिहारिन के पायल की आवाज़ 
कुछ काँटे कुछ पत्थर लिखे
थोड़े फूल और थोड़ी छाँव
लिखी 
और लिखा 
स्मृतियों का पाथेय
प्रतीक्षा को
प्रेम के गहरे रंग में रंग
देता है 
तुम प्रमाण मत देना
क्योंकि जितनी झाँकती है
प्रीत
किवाड़ों और खिड़कियों से 
उतनी ही तो नहीं होती
मौन ने भी लिखे हैं कई गीत 
कई कविताएँ लिखी हैं
अबोलेपन ने भी।
2. उदासियाँ  /अनीता सैनी 
मरुस्थल से कहो कि वह 
किसके फ़िराक़ में है?
आज-कल बुझा-बुझा-सा रहता
है?
 जलाती हैं साँसें 
भटकते भावों से उड़ती धूल 
धूसर रंगों ने ढक लिया है
अंबर को 
आँधियाँ उठने लगीं हैं 
 सूखी नहीं हैं नदियाँ 
वे सागर से मिलने गईं हैं 
धरती के आँचल में
 पानी का अंबार है कहो कुछ पल 
प्रतीक्षा में ठहरे 
बात कमाने की हुई थी 
क्या कमाना है?
कब तय हुआ था?
उदासियों के भी खिलते हैं
वसंत 
तुम गहरे में उतरे नहीं, वे तैरना भूल गईं।
….
3. खण्डहर/
अनीता सैनी 
चलन  को पता है
समय की गोद में तपी औरतें 
चूड़ी बिछिया और पायल टूटने
से 
खण्डहर नहीं बनतीं  
उन्हें खण्डहर बनाया जाता है
 चलन का 
जूते-चप्पल पहनकर 
घर से कोसों-दूर 
सदियों तक एक ही लिबास में 
अतृप्त...
भूख-प्यास से भटकना 
जल की ख़ोज  
रहट का मौन सूखता पानी  
कुएँ की जगत पर बैठ
उसका 
खण्डहर, खण्डहर … चिल्लाते रहना 
खण्डहर, खण्डहर …का गुंजन ही
उसे गहरे से तोड़कर बनाता
है
खण्डहर ।
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