गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

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 चैत की रात  /  नंदा पाण्डेय

 


चैत की रात का उत्साह ऐसा कि

बिना किसी अनुष्ठान के उसने

अपनी अतृप्त कामनाओं में

रंग भरने का निश्चय कर लिया

 

आज पहली बार

आँगन में बह रही

पछुआ हवा के विरुद्ध

जाकर वह

अपनी तमाम दुविधाओं को

सब्र की पोटली में बाँधकर

मौन की नदी में गहरे गाड़ आई

 

बहा आई आस्थाओं, संस्कारों,

परम्पराओं और नैतिकताओं के उस

भारी भरकम दुशाले को भी

जिसे ओढ़ते हुए उसके काँधे झुकने लगे थे

 

ढिबरी की लाल-लाल रोशनी

और ढोल मंजीरों की आवाजों के बीच

सबसे नजरें बचाकर

अपने वक्ष में गहरे धँसी सभी कीलों को

चुन-चुनकर उखाड़कर फेंकती गई

अंत कर  दिया उसने अँधेरों के प्रारम्भ को ही

 

अब आँगन का मौसम बदल गया

टूटी हुई वर्जनाओं और मूल्यों की

 रस्साकसी में खींचते

सदियों से उजड़े उस आँगन

की रूह आज फिर से धड़क उठी थी

 

वर्षों से जो ख्वाब !

उसकी बंद मुठ्ठी में कसमसा रहे थे

अब उमें पंख उग आये हैं...!

-0-राँची

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