मंगलवार, 3 अक्तूबर 2023

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भुवनपति शर्मा (वर्जिनिया, यूएसए)

  


 1-हार नहीं मानूँगा

 

कुछ तो है जो

आज भी स्पष्ट नहीं

अपरिभाषित

शब्दातीत

चल रहा मन में

पर मस्तिष्क में

तरंगों मे निहित

शब्दों तक पहुँच पाता नहीं

क्यों होता हाँसी

कि विराटतम भी

सूक्ष्मतम भी होता

मस्तिष्क की क्षमता से परे

कहना चाह कर भी

कह नहीं पाता

गूँगे के गुड के स्वाद सा

अपरिभाषित ही रहता

उसी अ कहे अ सोचे अनचीन्हें

को अभिव्यक्त करने मे

एक बार फिर चूक गया

पर हारा नहीं

प्रयास फिर करूँगा ही

अभी नहीं तो फिर कभी सही

हार नहीं मानूँगा|

-0-

 

2-ब्रह्म है शब्द

 

मैंने शब्दों को देखा

संसार बनाते हुए

रोज़ देखता हूँ

चतुर्दिक

रेडियो दूरदर्शन

हर व्यक्ति नर नारी

के माध्यम से निःसृत

अनंत शब्द बनाते हैं

वास्तविक या काल्पनिक

संसार एक

मस्तिष्क उलझा रहता

उनकी उलटबांसियों में

काल्पनिक वास्तविक सब

हो जाता गड्ड- मड्ड

शब्दों की लीला

शब्दों के माध्यम से

होती नहीं अभिव्यक्त

कल्पना मस्तिष्क विचार भाव

एक व्यक्ति के साथ

एक संसार नष्ट होता है

जैसे एक जन्म से नया

संसार लेता है जन्म

संभावनाओं के जन्म विनाश की

दैनंदिन कथा सिरजते है

शब्द यह

तभी तो ब्रह्म है

चतुर्दिक व्याप्त यह शब्द

-0-

3-मंथन

 

 

स्मृति के महासागर में

मंथन चल रहा अविराम

मेरे ही मन के देव दानव

चाह रहे अमृत पर

अप्रिय दुखद व घृणा उपेक्षा का

हलाहल कालकूट जो निकलता है

पचाने उसे

करने धारण गले में

मेरा शिव जगता है समाधि से

और फिर सुखद क्षणों, अनुभूतियों

की संपदा के बाद

स्नेह प्रेम का निकलता है अमृत

देता है जीवन मेरे देवत्व को

मेरे असुरत्व मेरे देवत्व और मेरे शिव को

स्मरणों में ढो रहा मैं

प्रतीक हूँ अमृत मंथन का

-0-Email: swahim12@gmail.com

5 टिप्‍पणियां:

  1. चिंतन को शब्दों में ढालता सुंदर सृजन। बधाई आदरणीय

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  2. बहुत ही सुन्दर रचनाएंँ है , आपको बहुत बधाई।
    सादर
    सुरभि डागर

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  3. बहुत सुन्दर सृजन...बहुत-बहुत बधाई आपको।

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  4. सुंदर चिंतनयुक्त रचनाएँ!

    ~सादर
    अनिता ललित

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  5. तीनों रचनाएँ चिन्तनशील है. हार्दिक बधाई.

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