बुधवार, 18 अक्टूबर 2023

482

 

तिरता फूल / अनीता सैनी 'दीप्ति'



घर की दीवारों से टकराते विचार 

वे पहचानने से इंकार करती हैं

आँगन भी बुझा-बुझा-सा रहता है!

मैंने कब उससे

उसकी कमाई का हिसाब माँगा है?

अंतस् के पानी ने 

भावों की डंडी से रंगों का घोल बनाया 

वे वृत्तियों के साथ तिरकर

मन की सतह पर आ बैठे  

शिकायत साझा नहीं कर रहा हूँ 

अपनों से मिलने की तड़प सिसकियाँ भर रही थीं

 कि मैं

उतावलेपन में जवानी रहद पर भूल आया।

गुरुवार, 12 अक्टूबर 2023

481

 चैत की रात  /  नंदा पाण्डेय

 


चैत की रात का उत्साह ऐसा कि

बिना किसी अनुष्ठान के उसने

अपनी अतृप्त कामनाओं में

रंग भरने का निश्चय कर लिया

 

आज पहली बार

आँगन में बह रही

पछुआ हवा के विरुद्ध

जाकर वह

अपनी तमाम दुविधाओं को

सब्र की पोटली में बाँधकर

मौन की नदी में गहरे गाड़ आई

 

बहा आई आस्थाओं, संस्कारों,

परम्पराओं और नैतिकताओं के उस

भारी भरकम दुशाले को भी

जिसे ओढ़ते हुए उसके काँधे झुकने लगे थे

 

ढिबरी की लाल-लाल रोशनी

और ढोल मंजीरों की आवाजों के बीच

सबसे नजरें बचाकर

अपने वक्ष में गहरे धँसी सभी कीलों को

चुन-चुनकर उखाड़कर फेंकती गई

अंत कर  दिया उसने अँधेरों के प्रारम्भ को ही

 

अब आँगन का मौसम बदल गया

टूटी हुई वर्जनाओं और मूल्यों की

 रस्साकसी में खींचते

सदियों से उजड़े उस आँगन

की रूह आज फिर से धड़क उठी थी

 

वर्षों से जो ख्वाब !

उसकी बंद मुठ्ठी में कसमसा रहे थे

अब उमें पंख उग आये हैं...!

-0-राँची

गुरुवार, 5 अक्टूबर 2023

480

 

दीवार

प्रियंका गुप्ता 

 


लोगों को कहते सुना है-

दीवारों के भी कान होते हैं

मैं कहती हूँ

दीवारों की आँखें भी होती हैं

ज़ुबान भी

और कहीं किसी कोने में

धड़कता है - एक नन्हा सा दिल भी 

क्योंकि अगर ऐसा न होता,

तो क्यों

तुम्हारे जाने के बाद

सबकी बतकहियों के बीच भी

इतना सन्नाटा -सा होता ?

 


क्यों कहीं किसी कोने में

मेरे आँसुओं के समांतर

नम- सी दिखती दीवार

ऐसा क्यों होता माँ

कि

कभी लड़खड़ाने पर

झट सहारा देती मुझे

फिर कोई दीवार

ठीक तुम्हारी तरह

क्यों सुनाई देती है कोई सिसकी- सी

रात के सन्नाटे में?

क्या सच में ऐसा है

या फिर कोई वहम?

पता नहीं क्यों लगता है

तुम कहीं नहीं गई

बस छिपी हो इन्हीं किन्हीं 

दीवारों के पीछे

और एक दिन

जब सब काम करते-करते 

मैं बहुत थक जाऊँगी

तुम किसी दीवार के पीछे से

आवाज दोगी मुझे

पर तुम्हें पास बुलाने को

या फिर

तुमसे मिलने आने को

उन दीवारों के बीच

कोई दरवाज़ा मिलेगा क्या ?

-0-

 

मंगलवार, 3 अक्टूबर 2023

479

 

भुवनपति शर्मा (वर्जिनिया, यूएसए)

  


 1-हार नहीं मानूँगा

 

कुछ तो है जो

आज भी स्पष्ट नहीं

अपरिभाषित

शब्दातीत

चल रहा मन में

पर मस्तिष्क में

तरंगों मे निहित

शब्दों तक पहुँच पाता नहीं

क्यों होता हाँसी

कि विराटतम भी

सूक्ष्मतम भी होता

मस्तिष्क की क्षमता से परे

कहना चाह कर भी

कह नहीं पाता

गूँगे के गुड के स्वाद सा

अपरिभाषित ही रहता

उसी अ कहे अ सोचे अनचीन्हें

को अभिव्यक्त करने मे

एक बार फिर चूक गया

पर हारा नहीं

प्रयास फिर करूँगा ही

अभी नहीं तो फिर कभी सही

हार नहीं मानूँगा|

-0-

 

2-ब्रह्म है शब्द

 

मैंने शब्दों को देखा

संसार बनाते हुए

रोज़ देखता हूँ

चतुर्दिक

रेडियो दूरदर्शन

हर व्यक्ति नर नारी

के माध्यम से निःसृत

अनंत शब्द बनाते हैं

वास्तविक या काल्पनिक

संसार एक

मस्तिष्क उलझा रहता

उनकी उलटबांसियों में

काल्पनिक वास्तविक सब

हो जाता गड्ड- मड्ड

शब्दों की लीला

शब्दों के माध्यम से

होती नहीं अभिव्यक्त

कल्पना मस्तिष्क विचार भाव

एक व्यक्ति के साथ

एक संसार नष्ट होता है

जैसे एक जन्म से नया

संसार लेता है जन्म

संभावनाओं के जन्म विनाश की

दैनंदिन कथा सिरजते है

शब्द यह

तभी तो ब्रह्म है

चतुर्दिक व्याप्त यह शब्द

-0-

3-मंथन

 

 

स्मृति के महासागर में

मंथन चल रहा अविराम

मेरे ही मन के देव दानव

चाह रहे अमृत पर

अप्रिय दुखद व घृणा उपेक्षा का

हलाहल कालकूट जो निकलता है

पचाने उसे

करने धारण गले में

मेरा शिव जगता है समाधि से

और फिर सुखद क्षणों, अनुभूतियों

की संपदा के बाद

स्नेह प्रेम का निकलता है अमृत

देता है जीवन मेरे देवत्व को

मेरे असुरत्व मेरे देवत्व और मेरे शिव को

स्मरणों में ढो रहा मैं

प्रतीक हूँ अमृत मंथन का

-0-Email: swahim12@gmail.com