हम कैसे पर्व  मनाएँ
संजीव
द्विवेदी
हम कैसे पर्व मनाएँ
तुम बोलो होली व  दीवाली का ।
 सदियों से भूखा
नंगा फुटपाथों  वाली थाली का ।
 क्या दिवाली
का बोनस है, क्या होली का है पुरस्कार ।
खुशियों का 
क्या  मतलब होता कोई बतला दे इक
बार  ।
पत्थर  तोड़ती
नारियाँ हैं बच्चे मजदूरी करते हैं  ।
हो गए बुज़ुर्ग जवानी में जो हाय हजूरी करते हैं  ।
भारत के गाँव में देखो जो आधा जीवन जीते हैं ।
 आधे से भी आधे
 जीवन खानाबदोश में  बीते हैं ।
 जो जीवन शेष
बचा रहता  वह मिट जाता है रोने में ।
 भारत दिखलाई
देता है जीवन के बस एक कोने में ।
 दुख दर्द न
कोई  समझेगा  जब तक गरीब की थाली का ।
हम कैसे पर्व मनाएँ
तुम बोलो होली व  दीवाली का ।
 बोलो यह
आजादी है क्या इसको हम  त्योहार कहें  ?
धनिको की लगी बाज़ारों के या इनके अत्याचार कहें?
 मिट्टी के
दीप बेचते जो उन पर होता है मोल भाव  ।
जो माल खड़े हैं अरबों के जिनके चेहरे हैं बेनक़ाब  ।
 उनके दामों
में छूट नहीं करते गरीब से मोलभाव ।
 धनिको पर
नहीं शिकंजा है जो महँगाई के चले दाँव  ।
जब तक भारत के
नक्शे से  मिटता न वेश कंगाली  का ।
हम कैसे पर्व मनाएँ
तुम बोलो होली व दिवाली का ।
सदियों से भूखा
नंगा हूँ फुटपाथों वाली थाली का ।
पसरा सन्नाटा 
मुफ़लिस को अपने बेगाने लगते हैं  ।
अंतर्मन की पीड़ा कहने को भी गरीब अब डरते हैं  ।
क्या पर्व दिवाली का पूछो निर्धन के घर में जाएगा । 
भूखों की भूख मिटाएगा या दीप बुझा कर आएगा ।
यह भारत खड़ा रो
रहा है है प्रश्न राष्ट्र रखवाली का ।
हम कैसे पर्व मनाएँ
तुम बोलो होली दिवाली का ।
मुफ़लिस धर्म नहीं पूछा मज़हब ने भी त्योहार नहीं । 
खुशियाँ भी मौन हो गई है देखा गरीब का द्वार नहीं ।
जब तक गरीब की आँखों में पीड़ा के आँसू आएँगे ।
लेता सौगंध दुखी मन से हम  कोई न पर्व मनाएँगे ।
सिसकियाँ भरी
झोपड़ियों में है खड़ा प्रश्न खुशहाली का।
हम कैसे पर्व मनाएँ तुम बोलो
होली दिवाली का?
  ( वरिष्ठ अधिवक्ता,उच्च न्यायालय, लखनऊ, उ प्र)