डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
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योग विज्ञान, योग दर्शन एवं योग संस्कृति
डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
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बच्चे फिर सवाल बनकर लौटें
डॉ.
पूनम चौधरी
हमारी महत्त्वाकांक्षाओं
को बस्तों में भरकर,
सभ्यताओं के ऋण सदृश
कंधों पर लादे,
वे बच्चे चले जा रहे हैं
—
हर सुबह, हर गली, हर निर्देश के पीछे।
हर पुस्तक अब एक पत्थर
है,
हर सूत्र — एक अनुत्तरित
आदेश।
वे चलते हैं रोज़, कतारबद्ध,
जैसे ज्ञान का कोई
निर्जीव कारख़ाना हो
और वे — कच्चा माल,
जिसे आकार नहीं, उपयोगिता दी जानी है।
उनकी आँखों में अब कोई
कहानी नहीं जलती,
बल्कि स्क्रीन की
कृत्रिम रौशनी
दृष्टि नहीं, दृष्टिकोण को बुझा चुकी है।
खेल के मैदानों में अब
घास उग आई है,
और बचपन की जगह
समय की सुइयाँ भाग रही
हैं।
शिक्षा अब स्पर्श और
स्पंदनहीन है —
न उसमें मिट्टी की गंध
है,
न शोर की कोई लय।
कक्षाएँ मौन हैं —
जैसे शब्दों की साँझ हो
चुकी हो।
शिक्षक अब सूचनाएँ
सुनाते हैं,
 पाठ्यक्रम
पूरा कराते हैं
प्रश्नों से कतराते हैं।
छात्र अब दोहराते हैं —
सीमित, शुष्क, अचिंत्य सूचनाएँ।
एक बच्चे ने पूछा था —
"सूरज क्यों
डूबता है?"
शिक्षक ने कहा —
"यह
पाठ्यक्रम में नहीं है।"
और उस दिन के बाद
वह बच्चा कभी नहीं डूबा
—
पर उगा भी नहीं।
हमने सिखाया —
कल्पना भ्रम है,
व्याकरण नियम है,
सोचने से अधिक मूल्य
स्मृति और अंक का है।
और इस तरह
हमने इस नई पौध को
उसके ही भविष्य से बेदखल
कर दिया।
पर अभी भी शेष है समय।
कहीं किसी गाँव में
एक वट-वृक्ष के नीचे कोई
गाथा कह रहा है।
कहीं कोई बच्चा
अपनी माँ से पूछ रहा है
—
"धरती का रंग
बदलता क्यों है?"
कहीं कोई शिक्षक
कक्षा के वातायन खोल रहा
है,
ताकि हवा आए —
और कोई विचार उड़ सके।
हमें देना होगा शिक्षा
को पुनर्जीवन —
जैसे सूखी मिट्टी में
पहला बीज टपकता है।
हमें स्कूलों को फिर से
गुरुकुल बनाना होगा,
जहाँ डर नहीं, सहज विश्वास हो।
जहाँ बच्चे पाठ्यक्रम से
अधिक
पृथ्वी, समय, मनुष्य और मौन को समझें।
जहाँ गणित, मात्र गणना नहीं,
अनुपात हो जीवन और तर्क
का।
जहाँ इतिहास
सिर्फ सम्राटों की
विजयगाथा नहीं,
बल्कि किसान की थकान भी
दर्ज करे।
जहाँ विज्ञान
सूत्रों और आविष्कारों से
अधिक,
प्रश्न पूछने की भूख
सिखाए।
शिक्षा एक वाद्य है —
लेकिन सार्थक तभी है
जब वह हर बालक के
आत्म-स्वर में बज सके।
हर बच्चा एक राग है —
जिसे बाँधना नहीं,
बस धैर्य से सुनना
चाहिए।
जब बच्चा
चेहरे पर निश्छल मुस्कान
भरे स्कूल पहुँचे —
तो वह किसी संस्था में
नहीं,
एक संसार में प्रवेश कर
रहा हो।
और जब वह लौटे —
तो उसकी आँखों में
कोई जिज्ञासा झिलमिला
रही हो —
जैसे निर्मल जल पर 
गिरा हुआ कोई चंद्रबिंब।
तभी हम समझ पाएँगे मर्म
शिक्षा का!
तभी हम कह सकेंगे —
हमने उन्हें पढ़ाया नहीं,
बल्कि उन्हें उगने दिया।
-0-
शिक्षा - एम. ए(हिंदी
)पी-एच.डी( शैलेश मटियानी के कथा साहित्य कीसंवेदना ), एम. एड,एल. एल. बी (आगरा विश्वविद्यालय )
निरंतर आलोचनात्मक व रचनात्मक विमर्श में सक्रिय।
 ईमेल आईडी- poonam.singh12584@gmail.
कॉम
अनिमा दास
आऊँगी... ऐसा कहा था
उसने,
किंतु शून्य लेकर आएगी, 
यह नहीं कहा था।
नहीं कहा था कि 
रक्त-मेघों की वृष्टि
होगी,
जीवितों को कर्म-ग्रह
से 
धर्म-ग्रह पर्यंत की
यात्रा में,
इस जन्म की सत्यता 
परिलक्षित होगी... 
नहीं कहा था उसने।
सूर्य की भी 
प्रतिछाया जलती
रहेगी...
जल के वाह्य स्तर
हिमखंड में,
उत्तप्त रहेगा लीन
होकर भी...
उस प्रतिछाया में... 
वह उभरती एक 
कुमारी अग्नि कणिका- सी होगी,
यह नहीं कहा था... 
मैं पृथ्वी को उसका 
सौंदर्य पुनः कर
प्रदान,
उसका शृंगार करूँगी, 
यह अवश्य कहा था... 
सुना है मैंने...
सुन रहा था मेरा
अंतर्मन...
जब अश्रु- स्रोत में 
दयनीयता बह रही थी,
नीरव वेदना व 
मौन क्रंदन की भिक्षा
में,
मूक प्रार्थना में,
विदग्ध रजनी थी...
हाँ... उस समय 
वह भी सुन रही थी...
अनंत प्रलय का 
आशीर्वाद भी दिया था
उसने...
जब मेरी तूलिका की 
निविड़ एक पीड़ा 
दिगंत स्पर्श कर रही
थी...
कर नतमस्तक मैं भी...
महानिद्रा का आवाहन कर
रही थी...
मैं उसे सुन रही थी... 
यह भय नहीं... था एक
आर्तनाद।
-0-
2. मेरा
क्षताक्त इतिहास 
आज मैं करती स्मरण
अतीत का,
किस मुहूर्त हुई थी 
काराग्रस्त मैं,
कैसे हुई थी 
मेरी भूमि रक्तरंजित,
शरीर हुआ था शीर्ण, 
हुई थी ध्वस्त मैं।
आज मैं करती स्मरण 
अस्त-अस्मिता का,
क्यों हुआ था मेरा
अस्तित्व 
अभिशप्त,
क्यों हुई रचित 
मेरी करुण कहानी,
विध्वंस के नाट्य मंच
पर 
कितने घृणित चरित्र
 हुए
आविर्भाव।
मुझे स्पर्श करते हुए,
 मुझे
निर्वस्त्र करते हुए,
मुझे कलंकित करते हुए, 
मेरे इतिहास को 
क्षताक्त करते हुए...
क्या एक क्षण तुमने 
यह नहीं किया स्मरण,
मैं हूँ तुम्हारी
जन्मदात्री, 
मेरी भूमि पर है
तुम्हारा 
समग्र अहं-राज्य...?
इति कविता 
निर्दिष्ट दिशा में (सॉनेट )
अनिमा दास 
सॉनेटियर 
कटक, ओड़िशा 
एक संकेत सा.. एक रहस्य
सा.. काव्य प्रेयसी के घनत्व में 
रहते हो तुम, हे कवि! तुम अनंत रश्मियों का हो एक बिंदु 
नहीं होते जब तुम
परिभाषित अनेक शब्दों में.. अपनत्व में 
नक्षत्रों में होते तुम
उद्भासित बन संपूर्ण अंतरिक्षीय सिन्धु 
मेरे जैसे कई कहते हैं
तुम लघु में हो वृहद.. वृहद में अनंत 
जब घन अरण्य में चंचल
होती चंद्र-किरण, मैं कहती हूँ 
कविवर के शब्द पंच रूप
से हो निस्सृत सप्त अक्षर पर्यंत 
पुनः पंच रूप में होते
आबद्ध, मैं उस चित्रकल्प में रहती
हूँ 
प्रत्येक छंद में संचरित
प्राण.. तमस में भी होता आलोकित 
यह प्रकाश.. यह
निर्झर..शैलशीर्ष की यह लालिमा समस्त 
करते प्रश्न.. कहो कवि
कैसे तुम वर्णमाला को किए जीवित 
क्या ये वही अर्ण हैं, जो तुम्हे किया है पाठक हृदयाधीनस्थ? 
तुम्हारे अवतरण से
महार्णव की शुभ्र-उर्मियाँ हुईं काव्यमय 
हुई महीयसी, कथा हुई संपूर्णा..प्रस्फुटित हुआ किसलय।