सोमवार, 20 मार्च 2023

441-प्रेम

प्रो. राम विनय सिंह

 


खींच लेते हैं

जन्मांतर सौहार्द

सहसा ही

अनदेखे, अनछुए भी

भाव- सारणियों को

स्वप्न में सुनी कोयल की आवाज़ की तरह!

 

मोह लेते हैं

मृदु मन को

निष्पंद नैन भी

प्राणों से बात करते

उन्नत शिखरों पर

समाधि की मौन अभिव्यक्ति की तरह!

 

छूकर जगा देते हैं

पल में ही

किसी सोए अलसा

अंतरंग तरंगित स्वन को

नीरव में कलरव भरते

भोरहरे उल्लास भरे

पंछियों के अस्पष्टाक्षर प्राभातिक की तरह!

 

सींच देते हैं

यक-ब-यक

गंगा यमुनी जलधार से

पत्थरों के भीतर तक फैली हुई

बंजर जमीन को

अहसास के आवर्त में घिरे

बादलों के जार-जार फूट पड़े कंठ

और आँखों के विकल प्रश्नोत्तरों की तरह!

 

विह्वल कर देते हैं

प्रशांत मन को भी

विजन के एकांत में

निर्झर के स्पंदित प्रशांत में

चोट खाई चेतना के

पिघल-पिघलकर नदी बन जाने की तरह!

 

झंकृत कर देते हैं

शब्दों के वेणुरंध्र में बजते- से अर्थ बन

मन प्राणों के अनछुए तारों को भी

नि:सर्ग के द्वार से

निर्निमेष निहारते-से

तट पर खड़े मौन को

एक और अलौकिक शान्ति की तरह!

 

प्रेम व्यक्त हो जाता है

सहज ही

अधरों की अव्यक्त विवक्षा में

प्रणय की निस्पृह प्रतीक्षा में

कोमल कमल की पंखुड़ी पर

चमकदार मोतियों की आभा-सी

आभासी आकाश की आँखों से

टपक पड़े

इतिहासगर्भ अश्रुबिन्दु की तरह!

 -0-(देहरादून, उत्तराखण्ड)

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