शनिवार, 4 मार्च 2023

436-दो कविताएँ

  रश्मि विभा त्रिपाठी

 1-स्त्री

 


पत्थरों से टकराकर

नदी- सी

बहते रहने का ध्येय

जिसका धैर्य

अटूट

अपरिमित, अप्रमेय

आगे बढ़कर

लड़कर

रोज

एक युद्ध

बनती अजेय

घर परिवार के लिए जो

उपादेय

नीरव को तोड़कर

मन निचोड़कर

भावों का अर्क

पन्ने पर कभी उड़ेल दे

तो बन जाती है

महादेवी

या

अज्ञेय

गढ़कर शगुन के गीत

जीवन की लय में पिरोकर प्रीत

गाती है छंद गेय

 

स्त्री

पुरुष के लिए ही

फिर

क्यों है

हेय।

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2-लबादा

 

बाहर से ओढ़े आधुनिकता का

लबादा

मगर भीतर कुछ ज्यादा

पजेसिवनैस

बाहर किसी से एक शब्द बोलने पर

घर में रोज तमाम गाली खाती है

उसका दोहरा व्यक्तित्व

औरत जिन्दगी भर पचाती है

मगर

पढ़े लिखे होकर भी

नासमझी और शक्की विचारों से लैस 

आदमी को मरते दम तक बनती रहती है गैस।

-0-

3 टिप्‍पणियां:

  1. मेरी कविता प्रकाशित करने के लिए आदरणीय सम्पादक जी का हार्दिक आभार।
    आदरणीया उपमा और रश्मि जी की टिप्पणी की हृदय तल से आभारी हूँ।

    सादर

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