रविवार, 26 नवंबर 2017

‘तमसो मा ज्योर्तिगमय’

तमसो मा ज्योर्तिगमय
-डॉ0 कविता भट्ट
(राष्ट्रीय महासचिव, उन्मेष,हे000गढ़वाल विश्वविद्यालय
श्रीनगर (गढ़वाल), उत्तराखण्ड

प्रकाश का पर्व ‘दीपावली’ अर्थात् ‘दीपकों की पंक्ति’ पुनः-पुनः एक वर्ष के अन्तराल पर  उपस्थित होता है। इस पर्व को मनाने के मूल में उपस्थित यों तो अनेक मान्यताएँ हैं; किन्तु मुख्य मान्यता यह है कि ‘अनैतिक गतिविधियों के प्रतिनिधि रावण’ पर ‘नैतिकता के प्रतिनिधि राम’ अपनी विजयोपरान्त जब स्वदेश अर्थात् अवधपुरी लौटे तो उनके स्वागत में दीपकों की पंक्तियों अर्थात् ज्योतिमालाओं से सभी मार्गों और घर-चौबारों को सजा दिया गया था। यद्यपि उस रात आमावस्या थी; किन्तु अवधनगरी के नागरिकों ने अनैतिकता पर नैतिकता की विजय की प्रतिस्थापनास्वरूप उस काली रात को पंक्तिबद्ध ‘दीपकों’ या ‘ज्योतिपुंजों’ द्वारा प्रकाशोत्सव में परिवर्तित कर दिया। प्राकृतिक पकवान-मिष्ठान्न आदि वितरण एवं नृत्य-गायन आदि के साथ हर्षोल्लास मनाया गया।  ऐसा माना जाता है कि यह परम्परा तब से अभी तक निर्बाध रूप से गतिशील है। वस्तुतः यह पर्व मात्र एक बाह्य या सामाजिक अंधानुकरण नहीं; अपितु इसके मूल में गहन नैतिक संदेश है; किन्तु आज हम इस संदेश को भूलकर मात्र बाह्य प्रकाश के संसाधन एकत्र करने में व्यस्त हैं- अब किंचित् ही दीपक दिखते हैं; दीपक और मिष्ठान्नों का स्थान ले लिया अधिकाधिक मुनाफे का पर्याय मिलावटी मिठाइयाँ, लड़ियाँ-बल्ब-हेलोजेन लाइट्स-आतिशबाजी आदि न जाने क्या-क्या। जितने अधिक ये संसाधन होंगे- स्टेटस उतना ही बड़ा; जबकि ये सभी पर्यावरण को अथाह हानि पहुँचाते हैं।  साथ ही स्टेटस के संसाधनों को जुटाने हेतु जो अनैतिक गतिविधियाँ हम अपनाते हैं; वे वैयक्तिक एवं सामाजिक अहित के मूल कारण हैं। हम बाहरी जगमग में खो गए; जबकि आन्तरिक रूप से हम अनैतिकता के गहन अंधकार में भटक चुके हैं। दीपावली का अभिप्राय बाह्य प्रकाश के संसाधन कदापि नहीं; इसका प्रयोजन तो आत्म-प्रकाश है।
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के मूल में वेद एवं उपनिषद् साहित्य के संदेश हैं और साररूप में ये जीवन की कला एवं विज्ञान दोनों ही हैं। ‘असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतंगमय।।’ अर्थात् ‘हमें असत्य से सत्य की ओर ले चलो; अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो और मृत्यु से अमरत्व’ की ओर ले चलो जैसे आध्यात्मिक एवं नैतिक संदेशों से भारतीय वाङ्मय भरे पड़े हैं। इस सभ्यता ने हमेशा ही नैतिकता को जीवन का मूल आधार माना; किन्तु प्रश्न यह भी है कि वर्तमान परिदृश्य में भारतीय सभ्यता क्या अपने इन मूल मन्त्रों से भटक चुकी है? या भौतिक मोहपाश के कीच में आकंठ निमग्न हो चुकी है। यह प्रश्न इसलिए प्रासंगिक है; क्योंकि विगत कुछ वर्षों से संसार के मानचित्र पर भारतवर्ष भ्रष्टाचार के पहाडस्वरूप खड़ा है। यह कोई मिथ्या नहीं; स्वयंसिद्ध है; यद्यपि भ्रष्टाचार उन्मूलन के नाम पर नई-नई सरकारें बन जाती हैं; तथापि प्रश्न वैसे ही खड़ा है कि क्या बिना आत्मविश्लेषण के भ्रष्टाचार या अनैतिकता का उन्मूलन सम्भव है। प्रत्येक व्यक्ति समाज में व्याप्त विसंगतियों एवं अनैतिक गतिविधियों का विश्लेषण करता है; किन्तु स्वयं को उस विश्लेषण से विलग रखकर।
प्रश्न यह है कि भारतीय संस्कृति के आत्मस्वरूप ये पर्व क्या मात्र चार्वाक् दर्शन के अनुगमन का प्रतीक बन गए हैंकिन्तु पारम्परिक रूप से भारतीय संस्कृति के मूल में उपस्थित इन पर्वों के नैतिक प्रतीकीकरण से हमने अन्धकार पर कितनी विजय प्राप्त की? यह अत्यंत जटिल प्रश्न है। आइए विश्लेषण करते हैं; इन प्रश्नों के मूल में उपस्थित कारणों एवं उनके सार्वभौमिक निवारण का।
ध्यातव्य है कि विश्लेषणात्मक दृष्टि से ‘दीपावली’ देहगत अन्धकार को आत्मज्ञान के प्रकाश से दूर करने का एक रूपक है। ‘दीपक’  या ‘ज्योतिपुंज’ प्रतीक है- सार्वभौमिक हितों हेतु वैयक्तिक हितों के बलिदान का। यह प्रतीक है- स्थूल या भौतिक परिधियों का उच्छेदन करते हुए चैतन्य के विविध स्तरों को पार करते हुए आत्मचैतन्य के परमचैतन्य में सम्मिलन का।माटी का दीपक मात्र ज्योतिपुंज नहीं होताज्योतिपुंज में तीन संघटक होते हैं- रूई की बाती, तेल एवं माटी का दीपक। दार्शनिक विश्लेषण के अनुसार मानव के व्यक्तित्व की तुलना भी दीपक से की गई है। जिस प्रकार ये तीनों मिलकर ज्योतिपुंज को तैयार करते हैं; उसी प्रकार मानव व्यक्तित्व में त्रिगुण अर्थात् सत्त्व, रजस् एवं तमस् की परिकल्पना आयुर्वेद के साथ ही उपनिषदों, सांख्य, योग तथा गीता आदि दर्शनशाखाओं में की गई है। सत्त्वगुण परोपकार, ज्ञान, प्रकाश, विवेक, नैतिकता, यथोचित निर्णय, सकारात्मकता, शान्ति तथा सद्गुणों का प्रतिनिधि है। रजस् गुण क्रियाशीलता, साहस के साथ ही स्वार्थ, काम, क्रोध, मद, लोभ तथा मोह आदि का प्रतिनिधि है। तमस् गुण अविवेक या अज्ञान, अन्धकार, आलस्य तथा निद्रा आदि का प्रतिनिधि है। इन गुणों का परस्पर विरोध चलता रहता है और जब व्यक्ति पर जो गुण प्रभावी होता है; उसी की परिणति दैनिक क्रिया-कलाप में होती है। यदि तमस् प्रभावी हो तो अविवेक एवं आलस्य से युक्त होकर व्यक्ति नकारात्मक गतिविधियों का स्वामी होता है। यदि उसके साथ ही रजस् की अधिकता इस अज्ञान के साथ मिलकर व्यक्ति को अहंकारी एवं निरंकुश बना देती है। वह अपने व्यक्तित्व में उपस्थित आत्मतत्त्व को भूलकर मात्र सांसारिक एवं भौतिक सुख-सम्पन्नता हेतु समस्त अनैतिक गतिविधियों में लिप्त हो जाता है। इन दोनों ही गुणों का अस्तित्व तो रहेगा ही और रहना भी चाहिए क्योंकि व्यक्ति को आजीवन क्रियाशील रखने हेतु रजस् आवश्यक है। साथ ही जब कार्य करते-करते व्यक्ति थक जाए, तो उसे मनोशारीरिक विश्राम चाहिए। इसके लिए तमस् का अस्तित्व आवश्यक है। इन दोनों गुणों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता; किन्तु व्यक्तित्व पर इनका अतिप्रभाव एक अस्वस्थ, अनैतिक एवं असंतुलित व्यक्तित्व हेतु उत्तरदायी है। अतः इन गुणों के यथोचित नियमन हेतु व्यक्तित्व को सत्त्व गुण की अधिकता द्वारा निर्देशन मिलना आवश्यक है। तभी व्यक्तित्व स्वस्थ, नैतिक एवं संतुलित होगा। जितना सत्त्व अधिक होगा; व्यक्ति उतना ही आत्मतत्त्व के निकट होगा और उतना ही अधिक नैतिक होगा।    
सत्त्व का रंग श्वेत, रजस् का रंग लाल एवं तमस् का रंग काला माना गया है। अब थोड़ा दीपावली की दीपज्योति के रंग पर ध्यान देना चाहिए और इस सन्दर्भ में त्रिगुणों को समझना चाहिए। ज्योति को ध्यान से देखने पर इसमें प्रकाश की तीन परतें दृष्टिगोचर होती हैं। सबसे भीतर काली, उसके बाहर लाल एवं सबसे बाहर या ऊपर शुभ्र वर्ण ,जो अपने चारों ओर व्याप्त कालिमायुक्त अन्धकार को अपने वर्ण में रंजित कर प्रकाश का स्फुरण करता है। इसकी तुलना यदि व्यक्तित्व में उपस्थित त्रिगुणों से करें तो यह समझा जा सकता है कि व्यक्तित्व को प्रकाशमान बनाये रखने हेतु सत्त्व को प्रभावी करने के उपक्रम आवश्यक हैं।
त्रिगुण सिद्धान्त के साथ ही व्यक्तित्व की एक और विवेचना जो उपनिषद् साहित्य में प्राप्त होती है; उसे समझना भी यहाँ प्रासंगिक है। भारतीय दर्शन की अधिकतर शाखाओं द्वारा भी जिसे यथारूप स्वीकृति दी गई है; वह है- व्यक्तित्व की पंचकोशीय अवधारणा। व्यक्तित्व की पांच स्तर माने गये है; जो आत्मतत्त्व या चैतन्य के ऊपर प्याज की परतों की भाँति एक दूसरे को आवृत्त किए हुए हैं; इन्हें पंचकोश कहा जाता है। हमारे व्यक्तित्व में आत्मतत्त्व सबसे भीतर चैतन्यस्वरूप है जो ब्रह्मांडीय या सार्वभौम चेतना या परमचेतना का ही एक अंश है। ऐसा माना गया है कि इसके सबसे निकट आनन्दमय स्तर या कोश एक परत के रूप में है। साथ ही आनन्दमय के बाहर विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय तथा अन्नमय कोश भीतर से बाहर की ओर क्रमशः एक दूसरे के ऊपर हैं। जो सबसे बाहरी है और हमें दिखाई देता है; वह स्थूल शरीर है। समस्त अंग-प्रत्यंग-ज्ञानेन्द्रियाँ-कर्मेन्द्रियाँ आदि इसी का भाग हैं और आत्मचैतन्य के अभाव में यह स्थूल शरीर नितान्त जड़ हैं। अतः इस पर तमस् गुण प्रभावी है। जैसे-जैसे व्यक्तित्व का आन्तरिक कोशों की यात्रा करते हैं; वैसे-वैसे तमस् का प्रभाव न्यून होने लगता है। अन्नमय का नियमन प्राणमय तथा प्राणमय का नियमन मनोमय कोश करता है। प्राणमय एवं मनोमय कोशों में रजस् गुण का आधिक्य होता है। ये विज्ञानमय कोश द्वारा नियन्त्रित होते हैं। विज्ञानमय तक आते-आते रजस् एवं तमस् का प्रभाव कम होने लगता है तथा सत्त्व का प्रभाव बढ़ने लगता है। विज्ञानमय को आनन्दमय कोश अनुशासित करता है; जो नितान्त सात्त्विक होता है। आनन्दमय कोश आत्मप्रकाश से युक्त एवं सत्त्वगुण से युक्त होने के कारण व्यक्ति को सकारात्मक एवं विवेकी बनाता है। इसके भीतर आत्मतत्त्व या विशुद्ध चैतन्य है; जो निर्गुण है। इस प्रकार आत्मतत्त्व किसी भी गुण के प्रभाव में न होने  के कारण तटस्थ द्रष्टा है। यह सांसारिक गतिविधियों को एक दर्शक की भाँति देखता है। यह व्यक्ति को उचित-अनुचित तथा नैतिक-अनैतिक आदि प्रतिलोमों में भेद का दिग्दर्शन करवाता है; किन्तु इन्द्रिय-सुख में लिप्त व्यक्ति को इस द्रष्टा के निर्देश को नहीं मानकर अपने मन एवं शरीर की सुनता है। शरीर तमस् गुण प्रधान एवं इन्द्रिय-सुखों का कारक है। मन रजस् से युक्त होने के कारण अति चंचल है। अतः ये दोनों ही सत्त्व पर प्रभाव जमाकर नैतिक दृष्टिकोण को प्रस्फुटित नहीं होने देते। व्यक्ति को स्वार्थ, काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अज्ञान तथा अन्धकार आदि नकारात्मकताएँ अपने वश में कर लेती हैं। 
इन्द्रिय-सुख अर्थात् आँख, जीभ, त्वचा, नाक तथा कान को अनुकूल संवेदनाओं क्रमशः सुखद रूप, स्वाद, स्पर्श, गन्ध तथा शब्द का मोहपाश बाँधे रखता है। यह बन्धन इतना जटिल है कि मनुष्य इसके लिए असीम अनैतिक कर्म करता है। समस्त अनियमितताओं एवं भ्रष्टाचार का मूल यह इन्द्रिय-सुख ही है। हम सर्दी में गर्म से गर्म कपड़े तथा वातानुकूलित कक्षों का प्रयोग करना चाहते हैं। गर्मी में अधिक से अधिक वातानुकूलन प्रयोग करते हैं। यह मात्र एक उदाहरण है; ऐसे ही अन्यान्य सुख हम चाहते हैं। परिग्रह (आवश्यकता से अधिक धन-सम्पदा-भौतिक संसाधनों) को जमा करते हैं; ताकि सदैव सुखद इन्द्रियों संवेदनों से युक्त रह सकें। उस सुख के अतिरिक्त हम कुछ भी सोचने-समझने की स्थिति में नहीं रहते; क्योंकि तमस् का अन्धकार इतना अधिक प्रभावी होता है कि सत्त्व का प्रकाश असहाय स्थिति में होता है। आधुनिक परिदृश्य में यही हुआ- स्वार्थ, काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अज्ञान तथा अन्धकार आदि नकारात्मकताओं ने व्यक्ति को अपने वश में कर लिया। स्वार्थ से अधिक सोचने एवं समझने की स्थिति में वह है ही नहीं।
 श्री अरविंद व्यावहारिक स्तर पर चेतना की चार अवस्थाओं को स्वीकार करते हैं। चेतना की पहली अवस्था, तामसिक, दूसरी राजसिक, तीसरी सात्त्विक एवं अन्तिम या चौथी निर्गुण है। तामसिक एवं राजसिक अवस्था में व्यक्ति इन्द्रिय-सुख एवं आज में विचरण करता है, यह अज्ञान, अंधकार, काम, क्रोध तथा मोह आदि से युक्त है। ध्यातव्य है कि यह तमस् के प्रभाव में होते हुए भी आंशिक रूप से सत्त्व का प्रकाश पड़ते ही ज्ञान की खोज में समर्थ है। यह आन्तरिक ज्ञान-दीप्ति तथा अज्ञानमय मन के आत्मिक चेतना द्वारा रूपान्तर से ही सम्भव है।  यह ज्ञान की व्यावहारिक अवस्थाएँ हैं; किन्तु आत्मचैतन्य या आत्मज्ञान की अवस्था इन सबसे अधिक व्यापक है। वह आत्मचैतन्य के सर्वाधिक निकट आनन्दमय कोश में अवस्थित होती है। जब सत्त्वगुण प्रभावी होता है इसकी प्राप्ति तभी सम्भव है। जब तक सांसारिक क्रिया-कलापों में निमग्न हैं; तब तक ज्ञान की इसी अवस्था तक पहुँचा जा सकता है। आत्मचेतना के परमचेतना में सम्मिलन हेतु इससे भी उच्चतम अवस्था अपेक्षित है। वह तो नैतिकता-अनैतिकता की सीमाओं से परे निर्गुण एवं निर्विकार अवस्था है। वह आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में विवेच्य है; किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से सात्त्विक ज्ञान की अवस्था तक पहुँच सकें तो वैयक्तिक एवं सामाजिक उत्थान सम्भव है।
जब यह ज्ञान हो जाता है; तो व्यक्ति स्वयं ही ‘ज्योतिपुंज’ बन जाता है; बाहर अन्धेरा है या प्रकाश; उससे वह प्रभावित नहीं होता। ये सकारात्मक प्रवृत्तियाँ ही राम जैसे विराट व्यक्तित्व को जन्म देती हैं। इतिहास साक्षी है कि राम ने युद्ध यदि मात्र सीता को शारीरिक रूप से प्राप्त करने हेतु किया होता तो वे एक धोबी के कहने पर उसे त्यागते नहीं। अतएव राम एक सन्देश है; वैयक्तिक हितों का सामाजिक हितों के लिए त्याग; और उसी सन्देश हेतु ‘ज्योतिपुंज’ से प्रकाशित ‘दीपावली’ मनायी जाती है। इसके लिए आवश्यकता है; व्यक्तिगत स्वार्थ की परिधियों को तोड़ते हुए तमस् एवं रजस् धीन हुई अपनी वैयक्तिक चेतना को स्वतन्त्र एवं उन्मुक्त करने की। अन्यथा प्रत्येक व्यक्ति में नकारात्मकता अर्थात् रावण ही निवास करेगा। यदि राम बनना है तो अधिकारभाव को छोड़कर मात्र कर्त्तव्यभाव से कर्म करना। तभी सत्त्व प्रभावी होगा और हमारा व्यक्तित्व ज्योतिपुंज के समान बन सकेगा; जो मानवता को अनन्तकाल तक प्रकाशित करता रहेगा।
          लोकतन्त्र का सिद्धान्त है- समाज के सर्वाधिक उपेक्षित नागरिक की समस्या को भी गम्भीरता से सुनना और उसका समाधान करना। ‘राम’ ने राजतन्त्र में लोकतन्त्र का सिद्धान्त अपनाया और आज लोकतन्त्र में भी राजतन्त्र अपनाया जाता है। इसी की परिणति भ्रष्टाचार में होती है। ‘राम’ का स्वागत उनके विराट व्यक्तित्व के कारण की गयी और ज्योतिपुंज के रूप में उनके सद्गुणों का प्रतीकीकरण किया गया। जो स्वयं प्रज्ज्वलित होकर तथा ताप सहकर दूसरों के लिए प्रकाश प्रसारित करे। आइए- इस दीप-पर्व पर संकल्प लें कि हम सभी ऐसा ही दीपक बनकार ज्योतिपुंज रूपी राम बनें। ताकि हमारा अस्तित्व सुखद हो दुःखद नहीं; आइए प्रार्थना करें-
तमसो मा ज्योतिर्गमय।।’
 ‘तमसो मा ज्योर्तिगमय
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