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शनिवार, 31 जुलाई 2021

शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

रविवार, 25 जुलाई 2021

263-श्रीदेव सुमन: क्रान्ति के अग्रदूत

 डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

 

मेरी दादी ने सुहागन होते हुए भी कभी माँग नहीं काढ़ी, न सिंदूर भरा; ना ही बिन्दी लगाई। उन्हें सज-सँवरकर  रहना पसन्द नहीं था; ऐसा बिल्कुल नहीं था। मेरे दादाजी एक अक्षम व्यक्ति या वे ऐसा नहीं चाहते थे; ऐसा भी नहीं था। सच तो यह था कि मेरी दादी मजबूरी में माँग न भर सकी; धीरे-धीरे उनके और गढ़वाल की टिहरी  रियासत की उनके ही जैसी राजशाही के अधीन रहने वाली अनेक महिलाओं की  यह नियति बन गयी थी। इस प्रथा का नाम था स्यूँदी-पाटी।

 स्यूँद गढ़वाली भाषा में माँग को कहा जाता है। स्यूँदी-पाटी प्रथा के अनुसार केवल रियासत की पटरानी ही माँग काढ़ने, भरने और बिंदी लगाने, सजने-सँवरने का अधिकार रखती थी। यह एक साधारण बात लग सकती है किसीको; क्योंकि आजकल की महिलाएँ इसे प्रोग्रेसिव होने से जोड़ती हैं। उस समय ऐसा नहीं था; महिलाएँ माँग भरना पसंद भी करती थी और यह सुहागन होने का प्रतीक होने के कारण शुभ माना जाता था। सुहागन स्त्रियाँ माँग भरने में हर्ष और सौभाग्य मानती थी। माँग न भर सकना अशुभ माना जाता था और वैधव्य से जोड़ा जाता थालेकिन तत्कालीन राजशाही का भय ऐसा करने नहीं देता था। देण-खेण और न जाने कितनी ही ऐसी अनेक जनमानस का उत्पीड़न करने वाली प्रथाएँ, कर और अत्याचार टिहरी रियासत की तत्कालीन जनता ने झेले।

 देण (राजा द्वारा जनता से अनाज उगाही)-खेण (राजा द्वारा जनता से गुलामों के समान काम करवाना) और न जाने ऐसे कितने कर राजा ने थोपे थे और बदले में जनता को मिलती थी  केवल पराधीनता और अथाह अत्याचार । भारतवर्ष 15 अगस्त, 1947 को ही अंग्रेजों से स्वतंत्र हो चुका था; लेकिन टिहरी राजशाही के अमानवीय उत्पीड़नों का साक्षी बनकर इतिहास के पन्नों पर खून के आँसुओं से अथाह पीड़ा की कहानी लिख रहा था।

 एक ऐसा व्यक्ति, जिसे राजा द्वारा अथाह पीड़ाएँ केवल इसलिए दी गई;  क्योंकि उस व्यक्ति ने इन अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया। राजा ने इन्हें लगभग 35 सेर (32.5 किलो ग्राम) की बेड़ियाँ  पहनाकर जेल में डाल दिया। सुमन ने  84 दिन तक भूख हड़ताल की। न टिहरी जेल के एक कक्ष में अभी भी ये बेड़ियाँ रखी हैं। बचपन में हम इन्हें देखने जाते थे; जब इन्हें सुमन के बलिदान दिवस पर सभी के लिए दर्शनार्थ रखा जाता था सुमन की मूर्ति के साथ।

 सुमन और कुछ अन्य अमर बलिदानी सपूतों के विद्रोहों  का ही परिणाम था कि कुछ समय बाद टिहरी रियासत राजशाही से मुक्त हुआ। भिलंगना और भागीरथी के तट पर बसा हुआ टिहरी शहर (जहाँ मेरा बचपन बीता)कई वर्ष पहले डूब चुका है; विकास के मानवनिर्मित जलाशय में (जिससे निर्मित विद्युत आज भारत के अनेक राज्यों को जगमग कर रही है); ऐसे ही प्रकाशपुंज के समान यह अमर बलिदानी स्वतंत्रता का जननायक श्रीदेव सुमन इतिहास के पन्नों में अमर हो गया। 25 जुलाई को श्रीदेव सुमन जी का बलिदान दिवस है। श्रीदेव तुम एक चिरसुरभित सुमन की भाँति हमेशा महकते रहोगे हमारे मन-मस्तिष्क में। तुम्हें हम जैसे कोटि-कोटि जन का  कोटिशः नमन। सुमन जैसे ही अनेक अमर देशभक्त जो इतिहास के पन्नों में कहीं गुम हो गए; किन्तु देश को स्वतंत्र करवाने में जिन्होंने अपना लहू बहा दिया, उन सभी के बलिदान से भारत का जन-जन कभी उऋण नहीं हो सकता।

 जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

शनिवार, 24 जुलाई 2021

262-गुरु और शिक्षक

डॉ. कविता भट्ट  'शैलपुत्री'

 

गुरु होना और यान्त्रिक रूप से शिक्षक होना दोनों पर्याप्त रूप से भिन्न  हैं। इन दोनों शब्दों और पदों का प्रयोजन और अभिप्राय नितांत भिन्न है।

  गुरु अर्थात अंधकार या अज्ञान से प्रकाश या ज्ञान की ओर ले जाने वाला। गुरु ज्ञान देता है, शिक्षक शिक्षा देता है।  भारतीय परिदृश्य में ज्ञान नॉलेज नहीं है; यह पूरी तरह से शिक्षा भी नहीं कहा जा सकता। कैसे? आइए थोड़ा विस्तार से समझें।

 गुरु वही व्यक्ति हो सकता है; जो निर्विकार, निर्लोभ, निश्छल हो। अहंकार जिसे छू भी न सका हो। जो सुपात्र  शिष्य को 64 कलाओं में निपुण कर सके। साथ ही ब्रह्मविद्या या परा विद्या और अपराविद्या या लौकिक विद्या में पारंगत कर सके। आत्मज्ञानी ही सही अर्थ में गुरु हो सकता है।

  इस संदर्भ में में श्रीकृष्ण के गुरु महर्षि सांदीपनि का व्यक्तित्व और कृतित्व विशेष है। वे श्रीकृष्ण के साथ ही बलराम और सुदामा के भी गुरु थे। उन्होंने एक ओर श्रीकृष्ण को 64 कलाओं में निपुण किया तो दूसरी ओर सुदामा जैसे अकिंचन को भी समभाव से ज्ञान का प्रकाश प्रदान किया। गुरु वे होते हैं जो सुपात्र शिष्य को परा और अपरा विद्या प्रदान करें।

 भारतीय दर्शन, सभ्यता और संस्कृति के सन्दर्भ में, परा विद्या से तात्पर्य स्वयं को जानने (आत्मज्ञान) या परम सत्य को जानने से है। उपनिषदों में इसे उच्चतम स्थान दिया गया है। वेदान्त कहता है कि जो आत्मज्ञान पा लेते हैं उन्हें मुक्ति या अपवर्ग या  कैवल्य की प्राप्ति होती है, वे दुःखों से मुक्त हो जाते हैं और ब्रह्म पद को प्राप्त होते हैं।

 मुण्डकोपनिषद में वर्णन प्राप्त है कि शौनक ने जब अंगिरस से पूछा, – "कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति"

 (महोदय, वह क्या है जिसके विज्ञात होने पर सब कुछ विज्ञात हो जाता है?)

 अंगिरस ने उत्तर दिया-

 द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ।

तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति । अथ परा यया तदक्षरमधिग्म्यते ॥ - (मुण्डकोपनिषद्)

 

( दो प्रकार की विद्याएँ होतीं हैं जिन्हें ब्रह्मविदों ने बताया है,

 1-  परा विद्या 2- अपरा विद्या।

 परा विद्या-  जिसके द्वारा वह ब्रह्म  या 'अक्षर' (नष्ट न होने वाला) जाना जाता है।) इसका सम्बन्ध आत्म-साक्षात्कार, कैवल्य, मुक्ति, त्रिदुःख निवृत्ति से है।

 अपरा विद्या- इसके अंतर्गत ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्तं, छन्द और ज्योतिष आते हैं ।

 अपरा विद्या को परा विद्या के लिए मार्ग सुलभ बनाने का साधन कहा जा सकता है। इसका सम्बन्ध लौकिक जीवन को कुशलतापूर्वक व्यतीत करते हुए अंत में अपराविद्या तक मार्ग प्रशस्त करने से है। लेकिन यदि साधक या मनुष्य इसी में उलझ जाए तो वह परा विद्या या अक्षर तक नहीं पहुँच सकेगा।

 तथ्यपरक यह है कि शिक्षा देना अपरा विद्या का एक छोटा सा भाग है और शिक्षक उसे ही सम्पन्न करते हैं। इसलिए गुरु होना बहुत व्यापक अर्थ को लिए हुए है। शिक्षक और गुरु दोनों अलग-अलग प्रयोजन और अभिप्राय के द्योतक हैं ।

 शिक्षक शिक्षा देते हैं और व्यावहारिक ज्ञान अर्थात जितना भी आधुनिक शिक्षा के विभाग यथा-  व्यापारप्रबंधन, तकनीकि, चिकित्सा, गणित तथा विज्ञान इत्यादि हैं; ये सभी शिक्षा के अंतर्गत ही हैं। अब सोचिए शिक्षा आधुनिक जीवन में कितना व्यापक होने पर भी भारतीय वांग्मय के अनुसार कितना छोटा सा  स्थान रखता है मानव जीवन में।

 सार यह है कि शिक्षा का उद्देश्य आजकल अर्थोपार्जन के अतिरिक्त कुछ नहीं रह गया। व्यावसायिक अथवा अव्यावसायिक शिक्षा द्वारा व्यक्ति को मात्र अर्थोपार्जन या आजीविका या अच्छे सुख-सुविधायुक्त जीवन जीने के लिए तैयार किया जाता है।

 इसके लिए अच्छे वेतन पर शिक्षकों की व्यवस्था होती है। 

यह तो सीधी सी बात है कि वे ब्रह्मविद्या या परा विद्या तो नहीं दे सकते, अपरा विद्या को भी पूरा नहीं दे सकते और शिक्षा भी अपने शिष्यों को समान रूप से जीवन की 64 कलाओं में निपुण करते हुए भी प्रदान नहीं सकते; क्योंकि जीवन पद्धति परिवर्तित हो चुकी है। इसलिए यह सम्भव नहीं। एक कला में भी शिक्षार्थी को पूरी तरह निपुण कर दिया जाए तो तब भी शिक्षक धर्म पूर्ण होगा; क्योंकि शिक्षक को वेतन उतने के लिए ही दिया जा रहा है।

 

यहाँ यह भी समझना होगा कि यद्यपि शिक्षक वेतनभोगी हैं, तथापि प्रदत्त वेतन में यदि शिक्षक अपना कार्य निष्ठा से करें तो निश्चित रूप से शिक्षक भी गुरु के समान आदरणीय ही हैं; किन्तु इसके लिए प्रत्येक शिक्षक को आत्म-विश्लेषण की आवश्यकता है कि क्या वे अपना शिक्षण कार्य यथोचित ढंग से कर भी रहे है? अथवा केवल खानापूर्ति कर रहे हैं। निश्चित रूप से शिक्षक यदि यान्त्रिकता और आत्म-प्रवंचना से स्वयं को ऊपर उठाकर व्यापक दृष्टिकोण अपनायें तो वे श्रेष्ठ होंगे। अन्यथा वे मात्र एक यांत्रिक व्यवस्था का वेतनभोगी व्यक्ति से अधिक कुछ नहीं कहलाएँगे।

 शिक्षकों को गुरु के समान आदरणीय और पूजनीय होने के लिए महर्षि सांदीपनि जैसा समभाव अपनाना होगा। जो श्रीकृष्ण जैसे तेजस्वी और आर्थिक सम्पन्नता युक्त बालक और सुदामा जैसे अकिंचन के जीवनपथ को एक ही दृष्टिसम्पन्नता के साथ सुगम बना सकें। शिक्षकों के कर्त्तव्यबोध के अतिरिक्त इस हेतु आमूलचूल व्यवस्था-परिवर्तन की भी आवश्यकता है। यह शिक्षा में ही परिवर्तन लाएगा।

 सार यह है कि यह भी शिक्षक को गुरु नहीं बना सकता, किसी शिष्य विशेष की शिक्षक विशेष के प्रति आस्था एक अलग विषय है। हो सकता है कोई शिष्य किसी आदर्श शिक्षक को अपना गुरु मानता हो। यह एक व्यक्तिगत निष्ठा है।

 सार यह है कि यथोचित गुरु-शिष्य परंपरा चाहिए, तो पुनः गुरुकुल पद्धति की ओर जाने की आवश्यकता है। गुरु पूर्णिमा गुरु को समर्पित है, शिक्षक को समर्पित शिक्षक दिवस है।

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बुधवार, 21 जुलाई 2021

260-सतत विकास के लिए जनसंख्या नियंत्रणः डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री

 

भारतवर्ष के सुनियोजित सतत विकास हेतु यथोचित जनसंख्या नियंत्रण कानून सरकार द्वारा शीघ्र  ही लागू किया जाना आवश्यक है; यह बात डॉ कविता भट्ट 'शैलपुत्री', हे. न. ब. गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय, उत्तराखंड द्वारा कही गयी। वे पालीवाल कॉलेज शिकोहाबाद तथा बेंगकुलु विश्वविद्यालय, इंडोनेशिया के संयुक्त तत्त्वावधान में जनसंख्या और सतत विकास विषय पर आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय वेबिनार में उद्घाटन सत्र में भारत से वक्ता के रूप में बोल रही थी।भारतवर्ष के संदर्भ में जनसंख्या नियंत्रण कानून की आवश्यकता पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि इस दिशा में सख्त कानून लागू होना आवश्यक है। साथ ही उन्होंने कहा कि इस दृष्टि से नियम पालन न होने की स्थिति में सरकार को दंडात्मक प्राविधान भी बनाने होंगे। यदि हमारे देश की जनसंख्या इसी गति से बढ़ती रही तो अगले कुछ वर्षों में चीन को पछाड़ते हुए हम जनसंख्या के मामले में विश्व के सबसे बड़े देश होंगे। सीमित संसाधनों के कारण हमारे देश का एक बहुत बड़ा वर्ग गरीबी रेखा से नीचे है। आज भी हमारे देश ही नहीं अनेक देशों में लोग गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी के शिकार हैं। जीवन-स्तर में उन्नयन और सतत विकास के लिए जनसंख्या को नियंत्रित करना हमारे देश की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए; इसीलिए जनसंख्या नियंत्रण की ठोस नीति और कानून आवश्यक है। राजनीतिक दृष्टि से इसे धर्म, जाति या वर्ग आदि के चश्में से न देखते हुए देश-हित में कानून लागू होना चाहिए।

 

डॉ भट्ट ने कहा कि 1970 के दशक के बाद जनसंख्या वृद्धि को रोकने की दिशा में सरकार ने कोई भी कार्य नहीं किया। धर्म, जाति, लिंग, वर्ग और अन्य चश्मों से देखते हुए केवल वोट बैंक के कारण जनसंख्या विस्फोट की स्थिति तक पहुंचने पर भी सरकारें सोई रहीं। इस निद्रा को तोड़ते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2020 में लाल किले से यह कहा कि जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए कोई भी व्यक्ति जो प्रयास करता है, सच्चे अर्थ में वह देशभक्ति करता है।

जनसंख्या नियंत्रण को व्यापक सतत विकास का दार्शनिक आधार प्रस्तुत करते हुए डॉ भट्ट ने दार्शनिक दृष्टिकोण से विकास की एंथ्रोपिसेंट्रिक(मानवकेंद्रित), बायोसेंट्रिक( जैव केन्द्रित) और इकोसेंट्रिक(पारस्थितिकी थ्योरी को व्याख्यायित किया।

 

डॉ .भट्ट ने कहा कि पूरे पृथ्वी ग्रह पर मनुष्य अपनी सुविधा और विकास हेतु मानवकेंद्रित, जैव केन्द्रित हो गया है और वह पारस्थितिकी केंद्रित वधारणा की  अवहेलना कर रहा है, जिससे भविष्य में मनुष्य के साथ ही पूरी प्रजातियों के अस्तित्व समाप्त हो सकते हैं। इसलिए अत्यधिक जनसंख्या वृद्धि सतत विकास  में नहीं अपितु एकतरफा विकास में फलीभूत हो रही है।

सतत विकास के लिए जनसंख्या नियंत्रण न केवल भारतवर्ष, अपितु उन सभी देशों में आवश्यक है जहाँ आनुपातिक दृष्टि से संसाधनों की तुलना जनसंख्या अधिक है। इसमें धर्म, जाति, लिंग, वर्ग और क्षेत्र आदि को मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए। मानवजाति के साथ ही समग्र ग्रह के कल्याण हेतु इसे करना चाहिए।

इस अंतर्राष्ट्रीय वेबिनार के मुख्य आयोजक प्रो . एम . पी . सिंह, विभागाध्यक्ष, जीवविज्ञान, पालीवाल कॉलेज, शिकोहाबाद तथा डॉ गुस्वारणी अनवर, वानिकी विभाग, बेंगकुलु विश्वविद्यालय, इंडोनेशिया थे।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि आगरा तथा बरेली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति मोहद मुजम्मिल तथा विशिष्ट अतिथि राहुल पालीवाल, प्रबंधक, पालीवाल कॉलेज ने भी जनसंख्या और सतत विकास के विविध पक्षों को स्पष्ट किया।

अंतरराष्ट्रीय वक्ता नेपाल से डॉ . डी . के . झा तथा बांग्लादेश से डॉ . बी . के . चक्रबॉर्ती ने जनसंख्या वृद्धि को एक वैश्विक समस्या बताया और जनसंख्या नियंत्रण की आवश्यकता पर बल दिया।

इस वेबिनार में देश-विदेश के सैकड़ों शिक्षकों और छात्रों ने प्रतिभाग किया।

प्रस्तुति: ब्यूरो     

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यह समाचार इन पोर्टल पर भी देख सकते हैं-

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देवभूमि जे के न्यूज़ / खास बात/ डॉ कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’

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मंगलवार, 20 जुलाई 2021

259-स्वर योग है मानसिक श्रेष्ठता का साधन- डॉ कविता भट्ट

 पूरा वक्तव्य सुनने के लिए निम्नलिखित लिंक को क्लिक कीजिए- 

स्वरयोग       



मंगलवार, 6 जुलाई 2021

257- केंचुए नाग हो गए

 डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

बिल्ले हुए अब बाघ, केंचुए नाग हो गए

किरपा से राख कोयले भी आग हो गए।


कुएँ खोदकर भी कुछ प्यासे ही खड़े रहे

कुछ पी, धो-नहा कर बाग-बाग हो गए। 


अ से अमरूद, जिन्हें आ से आम ना पता

वे महान ज्ञ से ज्ञानी, बड़े ही भाग हो गए।


वन्दन में मगन रात-दिन वे वसन्त से खिले

निष्ठा हो या लगन, सब पूष-माघ हो गए।


कौवे- काँस्य पा गए, बगुलों ने रजत मढ़ा 

स्वर्ण पदक गिद्धों के भजन-राग हो गए। 


पारी की प्रतीक्षा में, तट पर मौन कुछ खड़े 

कुछ पवित्र हो, गंगा में बुलबुले झाग हो गए।


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गुरुवार, 1 जुलाई 2021

255-प्रेम

 साईनी कृष्ण उनियाल


प्रेम पूजा है, भक्ति है, सुमिरन भी है


मन के मंदिर का दीपक
, ये कीर्तन भी है

माँ की ममता के आँचल  की छाया भी है

पितृ वात्सल्य पूरित ये माया भी है

दिल से दिल जोड़ दे ये वो बंधन भी है

भाव भक्ति के अश्रु का क्रंदन भी है।।

प्रेम पूजा----

दु:ख से व्याकुल हुए मन की पीड़ा भी है

रूप- रंग में रंगे पट की वीणा भी है

ये मिलन की खुशी ये विरह की घुटन

वन में नाचे मयूरों के पग की थिरकन।।

प्रेम पूजा----

न है भाषा कोई, न कोई बोल है

विधि की रचना बड़ी ही ये अनमोल है

ज्ञान से भी परे ये अजब ध्यान है

विष को पीले जो मीरा ये अमृतपान है।।

प्रेम पूजा---

प्रेम की न ही जाति न पहचान है

भावनाओं का सुंदर ये संसार है

कान्हा के जीवन का भी तो यही सार है

मुरली की धुन पे रिझाया सारा संसार है।।

प्रेम पूजा---

धरती, अंबर में है और समंदर में भी

प्रेम की भावना जग के कण-कण में है

सृष्टि में जीवन का ये ही एक आधार है

प्रेम बिन प्राणी जीवन निराधार है।।

प्रेम पूजा है----

-0- श्रीनगर (गढ़वाल),उत्तराखण्ड