डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
बिल्ले हुए अब बाघ, केंचुए नाग हो गए
किरपा से राख कोयले भी आग हो गए।
कुएँ खोदकर भी कुछ प्यासे ही खड़े रहे
कुछ पी, धो-नहा कर बाग-बाग हो गए।
अ से अमरूद, जिन्हें आ से आम ना पता
वे महान ज्ञ से ज्ञानी, बड़े ही भाग हो गए।
वन्दन में मगन रात-दिन वे वसन्त से खिले
निष्ठा हो या लगन, सब पूष-माघ हो गए।
कौवे- काँस्य पा गए, बगुलों ने रजत मढ़ा
स्वर्ण पदक गिद्धों के भजन-राग हो गए।
पारी की प्रतीक्षा में, तट पर मौन कुछ खड़े
कुछ पवित्र हो, गंगा में बुलबुले झाग हो गए।
-0-
"कौवे- काँस्य पा गए, बगुलों ने रजत मढ़ा
जवाब देंहटाएंस्वर्ण पदक गिद्धों के भजन-राग हो गए। "
बहुत सशक्त व्यंजना।बधाई
बढिया।
जवाब देंहटाएंसुंदर, बधाई।
जवाब देंहटाएंअति सुंदर, उत्कृष्ट रचना।
जवाब देंहटाएंहार्दिक बधाई आदरणीया।
सादर
कविताया: कविता गुनिजना-मनोहरा
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 08 जुलाई 2021 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंवाह!बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअच्छी व्यंग्यात्मक ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंउम्दा व्यंग्य।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंकौवे- काँस्य पा गए, बगुलों ने रजत मढ़ा
जवाब देंहटाएंस्वर्ण पदक गिद्धों के भजन-राग हो गए।
क्या बात कही कविता जी 👌👌👌🙏🙏