पता तो चले
जयवर्धन काण्डपाल 'जय'
अधिवक्ता, उच्चन्यायालय उत्तराखंड
नैनीताल, उत्तराखंड
मुंह में जुबां है पता तो चले
तेरा क्या बयां है पता तो चले I
हकों की लड़ाई में तेरी मैं पूछूं
ना है के हां है पता तो चले I
जमीं है हकीकत की पैरों तले
या ख़याली आसमां है पता तो चले I
सच झूठ में जब छिड़ी जंग है
खड़ा तू कहां है पता तो चले I
कहीं आग कोई सुलग भी रही है
के केवल धुआं है पता तो चले I
सुहावना मंजर आया
मैंने फेंका फूल मगर ये लौट के कैसे
पत्थर आया
गुनाह नहीं कोई था लेकिन इल्जाम मेरे
क्यों सर आया I
पीड़ा में लिपटा तन था और मन आंसू से
भीगा सा
बहुत दिनों के बाद अचानक जब मैं अपने
घर आया I
मेरी झोली में कुछ सपने और पड़ी थी कुछ
यादें
रोते बच्चे के हाथों में मैं कुछ सपने
धर आया I
मैंने आँखें मूंदी छुपकर और ध्यान भी
भटकाया
लेकिन जाने किन बातों से गला मेरा भी
भर आया I
मैंने मन में बोया जबसे उम्मीदों का
एक बगीचा
तब से आँखों के आगे से सदा सुहावना
मंजर आया I
जयवर्धन काण्डपाल 'जय'
बहुत सुंदर दोनों रचनाएँ बधाई कांडपाल जी
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई भैजी
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति भाई जी।
जवाब देंहटाएंभूतब खूब सचिव महोदय
जवाब देंहटाएंआप सबका शुक्रिया
जवाब देंहटाएंBahut sundar
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