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मंगलवार, 6 नवंबर 2018

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हम कैसे पर्व  मनाएँ

संजीव द्विवेदी

हम कैसे पर्व मनाएँ तुम बोलो होली व  दीवाली का ।
 सदियों से भूखा नंगा फुटपाथों  वाली थाली का ।
 क्या दिवाली का बोनस है, क्या होली का है पुरस्कार ।
खुशियों का  क्या  मतलब होता कोई बतला दे इक बार 
पत्थर  तोड़ती नारियाँ हैं बच्चे मजदूरी करते हैं 
हो गए बुज़ुर्ग जवानी में जो हाय हजूरी करते हैं 
भारत के गाँव में देखो जो आधा जीवन जीते हैं ।
 आधे से भी आधे  जीवन खानाबदोश में  बीते हैं ।
 जो जीवन शेष बचा रहता  वह मिट जाता है रोने में ।
 भारत दिखलाई देता है जीवन के बस एक कोने में ।
 दुख दर्द न कोई  समझेगा  जब तक गरीब की थाली का ।
हम कैसे पर्व मनाएँ तुम बोलो होली व  दीवाली का ।
 बोलो यह आजादी है क्या इसको हम  त्योहार कहें  ?
धनिको की लगी बाज़ारों के या इनके अत्याचार कहें?
 मिट्टी के दीप बेचते जो उन पर होता है मोल भाव 
जो माल खड़े हैं अरबों के जिनके चेहरे हैं बेनक़ाब 
 उनके दामों में छूट नहीं करते गरीब से मोलभाव ।
 धनिको पर नहीं शिकंजा है जो महँगाई के चले दाँव 
जब तक भारत के नक्शे से  मिटता न वेश कंगाली  का ।
हम कैसे पर्व मनाएँ तुम बोलो होली व दिवाली का ।
सदियों से भूखा नंगा हूँ फुटपाथों वाली थाली का ।


पसरा सन्नाटा  मुफ़लिस को अपने बेगाने लगते हैं 
अंतर्मन की पीड़ा कहने को भी गरीब अब डरते हैं 
क्या पर्व दिवाली का पूछो निर्धन के घर में जाएगा ।
भूखों की भूख मिटाएगा या दीप बुझा कर आएगा ।
यह भारत खड़ा रो रहा है है प्रश्न राष्ट्र रखवाली का ।
हम कैसे पर्व मनाएँ तुम बोलो होली दिवाली का ।

मुफ़लिस धर्म नहीं पूछा मज़हब ने भी त्योहार नहीं ।
खुशियाँ भी मौन हो गई है देखा गरीब का द्वार नहीं ।
जब तक गरीब की आँखों में पीड़ा के आँसू आएँगे ।
लेता सौगंध दुखी मन से हम  कोई न पर्व मनाएँगे
सिसकियाँ भरी झोपड़ियों में है खड़ा प्रश्न खुशहाली का।
हम कैसे पर्व मनाएँ तुम बोलो होली दिवाली का?
  ( वरिष्ठ अधिवक्ता,उच्च न्यायालय, लखनऊ, उ प्र)

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