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बुधवार, 18 जनवरी 2023

417-गौरा का मैका ( जोशीमठ पर विशेष )

 डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

 


अहे! किसने हिम मुकुटा फेंका,

रो-सिसक रहा गौरा का मैका।

 

रोया पर्वत, चीखी जब घाटी,

स्वर्ण - रजत हुआ सब माटी।

 

नद शिखर झरने स्तब्ध खड़े हैं,

देखो बुग्याल लहूलुहान पड़े हैं।

 

वो रक्तिम सूरज उगा हिचका सा,

मौन पहाड़ी पर चंदा ठिठका सा।

 

संक्रान्ति हुई है ये क्रूर मकर सी,

हर पगडंडी यमपुरी की डगर सी।

 

पग - पग पर देखो झूली माया,

यों शंकर नगरी - रुदन है छाया।

 

नहीं क्षुधा-पिपासा शांत हुई तो,

अब अलकापुरी आक्रांत हुई वो।

 

ये आँसू खारे अब पी नहीं सकते,

आघात है गहरा- सी नहीं सकते।

 

मान बैठे स्वयं को मायापति तुम,

अरे मनुज कहाते- हे दुर्मति तुम।

 

निज भाग-विधाता कुछ तो बोलो,

ये मौन त्याग तुम मुख को खोलो।

 

निज हेतु षड्यंत्र स्वयं कर डाला,

निन्यांनब्बे फेरी नित-नित माला।

 

अहंकार में जो दिन रात हँसे हो,

निज काले कर्मों में स्वयं फँसे हो।

 

अब भी समय है तो संभलो थोड़ा,

सरपट दौड़ रहा- काल का घोड़ा।

 

सुरसा मुख असीम इच्छाएँ फैली,

कुचल डालो तुम ये मैली - मैली ।

 

नहीं चेते तो पश्चाताप से क्या हो,

त्रासदी - आँसू संताप में क्या हो।

 

विष बुझे बाण से ये प्रश्न बड़े हैं,

उत्तर दो शिखर विकल खड़े हैं।

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2 टिप्‍पणियां:

  1. जोशीमठ की त्रासदी पर सचेत करती मार्मिक कविता। उद्देश्यपरक सृजन के लिए हार्दिक साधुवाद शैलपुत्री जी!

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