डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
विष पीते हुए जीवन क्या यूँ ही बीत जाएगा।
या ऋतुराज भी अपना वचन कोई निभाएगा।
प्रस्तर हो चुकी धरती, कंटक- वन हैं मुस्काते।
क्या मेरे मन - आँगन में कुसुम कोई
खिलाएगा।
रंगों ने
है संग छोड़ा, तूलिका भी है सिसकती।
क्या इन रूखे कपोलों पर कोई लाली सजाएगा।
अब पत्रक भी भीगे हैं, लेखनी मौन है बैठी।
क्या मेरे शुष्क अधरों पर कोई रूपक
बनाएगा।
धरा चुप है, गगन चुप है, चुप है सृष्टि ये सारी।
क्या कोई खग विकल होकर सुर-गंगा बहाएगा।
आज तुम डूबे स्वयं में हो, नहीं सुध ले रहे मेरी।
किंतु भूलो नहीं तुम यह विरह भी
मुस्कराएगा।
अभी ठोकर में हैं जग की- अडिग संकल्प ये
मेरे।
समय मुस्कान देकर कल गले इनको लगाएगा।
अनुपम भावों का संगम ... उत्कृष्ट सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर कह देना पर्याप्त नहीं।
जवाब देंहटाएंअद्वितीय भावाभिव्यक्ति।
उत्कृष्ट सृजन की कोटिश बधाई आदरणीया दीदी।
सादर प्रणाम 🙏🏻
वाह! प्रत्येक शब्द प्रशंसा योग्य।बहुत सुन्दर कविता।💐
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 30 नवम्बर 2021 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
वाह! आशा और विश्वास से सजी सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंवाह!शानदार सृजन ।
जवाब देंहटाएंखुद ही गुलाब खिलाने हैं
जवाब देंहटाएंखुद ही काँटे निकालने हैं ।
भावपूर्ण सृजन।
आस और विश्वास का समागम ...
जवाब देंहटाएंअनुपम रचना...
जवाब देंहटाएंखूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंआप सभी को हार्दिक धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत ही गहन भाव भरी कविता ।
जवाब देंहटाएंशानदार।👌👌
हार्दिक आभार मित्रो
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट अभिव्यक्ति, सुंदर शब्द चयन, प्रभावी रचना, बधाई कविता जी
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