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शनिवार, 5 दिसंबर 2020
शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020
रविवार, 15 नवंबर 2020
177- नदी के आगोश में
डॉ कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
1
लिपटा वहीं
घुँघराली लटों में
मन निश्छल,
चाँद झुरमुटों में
न भावे जग-छल ।
2
ढला बादल
नदी के आगोश में
हुआ पागल
लिये बाँहों में वह
प्रेमिका -सी सोई।
3
मन वैरागी
निकट रह तेरे
राग अलापे,
सिंदूरी सपने ले
बुने प्रीत के धागे।
4
मन मगन
नाचता मीरा बन
इकतारे -सा
बज रहा जीवन
प्रीत नन्द नन्दन!
5
रवि -सी तपी
गगन पथ लम्बा
ये प्रेमपथ ,
है बहुत कठिन
तेरा अभिनन्दन!
मंगलवार, 10 नवंबर 2020
176-प्रथम अनिवार्य प्रश्न-सा
प्रथम अनिवार्य प्रश्न-सा
डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
पहाड़ियों से बहती बयार;
मेरे तन-मन को छूकर
संगीत के साथ बहती है;
चढ़ाई-उतराई की पीड़ा को
कर्णप्रिय स्वरलहरी में बदलने हेतु
सक्षम है; अतः मेरे लिए विशेष है।
मेरे तथाकथित घर की
खिड़की से दिखती है
एक नदी, जिसकी मृदु-तरंगित लहरें
कठोर सीने वाले पत्थरों पर
संघर्ष से सफलता लिखने हेतु
सक्षम हैं; अतः मेरे लिए विशेष है।
और हाँ दिखता है एक पीपल भी
दूर पर्वत की चोटी पर खड़ा
कर्मयोगी-सा तपस्यारत
सबके बीच रहकर भी है विरक्त
बिना प्रतिदान चाहे, प्राणवायु बाँटने हेतु
सक्षम है;- अतः मेरे लिए विशेष है।
बहती बयार, नदी की लहरों
और कभी-कभी पीपल बन
परीक्षापत्र के प्रथम अनिवार्य प्रश्न-सा
एक प्रश्न, जो उठता ही रहता है
प्रायः मेरे व्याकुल मन में;
'हम' विशेष क्यों नहीं हो सके?
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उदन्ती में मेरी सभी रचनाएँ निम्नलिखित लिंक को क्लिक करके पढ़ी जा सकती हैं-
रविवार, 8 नवंबर 2020
बुधवार, 28 अक्तूबर 2020
रविवार, 25 अक्तूबर 2020
173
विजयादशमी शुभकामनाओं सहित:
किसे जलाया जाए?
डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
जब सरस्वती दासी बन; लक्ष्मी का वंदन करती हो।
रावण के पदचिह्नों का नित अभिनन्दन करती हो।
सिन्धु-अराजक, भय-प्रीति दोनों ही निरर्थक हो जाएँ
और व्यवस्था सीता- सी प्रतिपल लाचार सिहरती हो।
अब कहो राम! कैसे आशा का सेतु बनाया जाए?
अब बोलो विजयादशमी पर किसे जलाया जाए।
जब आँखें षड्यंत्र बुनें; किन्तु अधर मुस्काते हों,
भीतर विष-घट, किन्तु शब्द प्रेम-बूँद छलकाते हों।
अनाचार-अनुशंसा में नित पुष्पहार गुणगान करें;
हृदय ईर्ष्या से भरे हुए, कंठ मुक्त प्रशंसा गाते हों।
क्या मात्र, रावण-दहन का झुनझुना बजाया जाए?
अब बोलो विजयादशमी पर किसे जलाया जाए?
विराट बाहर का रावण, भीतर का उससे भी भारी;
असंख्य शीश हैं, पग-पग पर, बने हुए नित संहारी।
सबके दुर्गुण बाँच रहे हम, स्वयं को नहीं खंगाला।
प्रतिदिन मन का वही प्रलाप, बुद्धि बनी भिखारी।
कोई रावण नाभि तो खोजो कोई तीर चलाया जाए।
अब बोलो विजयादशमी पर किसे जलाया जाए?