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शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019
रविवार, 15 दिसंबर 2019
तुम कितनी हसीन हो
बाबूराम
प्रधान
देखकर तुम्हें अर्श में जो देखूँ
शबे नूर हो तुम महजबीन हो
तुम कितनी हसीन हो
तबीयत संग डोलें हमारी
निग़ाहें
इस दिल को करना पड़ता है काबू
मारें हिलोरें दिल की
जो चाहें
लचकती हो डाली फूलों
की जैसे
खुदा का हो तोहफा अर्शे परवीन हो
तुम कितनी हसीन हो
खुशबू तुम्हारी महकती सबा है
बेदवा
मर्ज की भी तू ही दवा है
मुस्कुरा
के जो देखे दिल पे असर हो
मरते
मरते बचा ले तू ऐसी हवा है
समझके
फूल लबों पे बैठ जाएं भँवरे
लगती
हो ऐसे जैसे सहरा में नस्रीन हो
तुम कितनी हसीन हो
एक झलक जो देखे हो जाए दीवाना
रुखसार वासिफ कोई चश्मे दीवाना
तुझको जो देखे वो ढूँढे
लकीरों में
उठ जाऐं जो नजरें मुस्कुराए
दीवाना
पाने तुम्हीं को वो इबादत
में लगे हैँ
रोजे का तप ईद सी ताजातरीन
हो
तुम कितनी हसीन हो
दिल में हो हलचल यूँ इतराके चलना
हवाओं में ये आँचल उड़ाके चलना
छाए घटा काली गेसू झटकाके चलना
शाख ए गुल को हिला हिलाक़े चलना
जो भी देखे तुम्हें वो रुक जाए राह में
हुस्न के नशे में कितनी तल्लीन हो
तुम कितनी हसीन हो
महजबीन - चन्द्रमा के
समान ,शबे नूर - रात की चांदनी ,अर्श
- नभ , अर्शे परवीन - कृति का नक्षत्र,
सहरा - रेगिस्तान /जंगल , नसरीन
- सफेद गुलाब , रुखसार वासिफ - कपोल
प्रशंसक , चश्मे दीवाना - चक्षु प्रेमी ,
इबादत - पूजा , शाख ए गुल -
फूलों की डाली ,
--0-
बाबूराम प्रधान
नवयुग कॉलोनी , दिल्ली रोड,
बड़ौत - 250611
जिला - बागपत , उत्तर प्रदेश
मंगलवार, 3 दिसंबर 2019
रविवार, 24 नवंबर 2019
गुरुवार, 21 नवंबर 2019
शनिवार, 16 नवंबर 2019
मैंने उम्र गुज़ार दी..
डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
बिल्कुल आसान था
नागफनी उगाना
मगर मैं न उगा
सकी।
मेहनत का काम था;
फूल उगाना
मगर क्या करूँ
?
मुझे फूलों से
प्यार इस क़दर था
कि दिल की ज़मीं
सींचने में
मैंने उम्र गुज़ार
दी।
मुस्काते फूलों
को रौंदकर
वे ख़ुद को बागवान
कहते रहे।
-0-
शनिवार, 6 जुलाई 2019
आओ मिलकर बैठें दो पल
डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
एक-दूसरे से नैना उलझाए,
दो एकाकी हृदयों की ध्वनियों को,
मिलकर गले लिपटने दें,
यदि मिले तुम्हें अवकाश के क्षण,
तो आओ मिलकर बैठें दो पल।
अविरल चलती भौतिक यात्रा को,
कुछ क्षण अल्प विराम दे दें।
निज मन में उठते भावों को,
शब्द ध्वनि में परिवर्तित कर,
स्वयं को व्यक्त करें दो पल।
मशीनों के इस कालखण्ड में,
हम भी मशीन जैसे ही हो गए,
बिन अपनत्व मधुर रिश्तों के,
जंग लग गया है हम में।
चमचमाते अर्थविषयी युग में,
तुम्हें शान्ति न अवकाश हमें,
मन-मस्तिष्क-शरीर को,
प्रेम का नया तेल देकर,
एक नई स्फूर्ति-स्निग्धता प्रदान करें दो पल।
जाने कब फिर मिलना संग चलना हो,
एक अल्पावधि वाले मिलन-पश्चात्,
एक दीर्घकालीन विलम्ब-वियोग,
आओं नैनों की भाषा को,
नए सम्बल देकर आलाप करें दो पल।
ओ प्रिय! इस मधुर स्पर्श को,
हम सदियों से चाह रहे थे,
जड़वत् जीवन है वर्षों से,
पाषाणवत् मन-मस्तिष्क शरीर,
काया-मन-आत्मा का संगम होने दें दो पल।
न वह सरसता न सरलता
न स्वाभाविकता बातों की रही
मात्र स्वार्थयुक्तता की जटिलता
पिछले कई युगों से चल निकली
निहार रही थी तीव्र पुतलियाँ
राह कई सदियों से तुम्हारी
मनों की मधुर अठखेलियाँ
चाह रही थी संगत तुम्हारी
यह स्वर्ण शृंखला गूंथें दो पल।
आँचल का एक छोर बँधा है
रिश्तों की परिभाषा में
एक नया रिश्ता हम गूँथ रहे हैं
पाने को मन की थाहें
अस्तित्वों को परिभाषित करें दो पल।
आशाएँ निमिषों में भरकर
अंजुलियों से बाँटी हमने,
सुख के कुछ चंचल क्षण
जी भरकर लुटाए हमने
किंतु अब अपनी पारी में
क्या आशाएँ समाप्त हो गईं ?
कहाँ गई सकारात्मकता की अनुभूति?
और सद्गुणों का दिग्दर्शन कहाँ गया?
इनको भी उगने दें दो पल।
एक-दूसरे से नैना उलझाए,
दो एकाकी हृदयों की ध्वनियों को,
मिलकर गले लिपटने दें,
यदि मिले तुम्हें अवकाश के क्षण,
तो आओ मिलकर बैठें दो पल।
अविरल चलती भौतिक यात्रा को,
कुछ क्षण अल्प विराम दे दें।
निज मन में उठते भावों को,
शब्द ध्वनि में परिवर्तित कर,
स्वयं को व्यक्त करें दो पल।
मशीनों के इस कालखण्ड में,
हम भी मशीन जैसे ही हो गए,
बिन अपनत्व मधुर रिश्तों के,
जंग लग गया है हम में।
चमचमाते अर्थविषयी युग में,
तुम्हें शान्ति न अवकाश हमें,
मन-मस्तिष्क-शरीर को,
प्रेम का नया तेल देकर,
एक नई स्फूर्ति-स्निग्धता प्रदान करें दो पल।
जाने कब फिर मिलना संग चलना हो,
एक अल्पावधि वाले मिलन-पश्चात्,
एक दीर्घकालीन विलम्ब-वियोग,
आओं नैनों की भाषा को,
नए सम्बल देकर आलाप करें दो पल।
ओ प्रिय! इस मधुर स्पर्श को,
हम सदियों से चाह रहे थे,
जड़वत् जीवन है वर्षों से,
पाषाणवत् मन-मस्तिष्क शरीर,
काया-मन-आत्मा का संगम होने दें दो पल।
न वह सरसता न सरलता
न स्वाभाविकता बातों की रही
मात्र स्वार्थयुक्तता की जटिलता
पिछले कई युगों से चल निकली
निहार रही थी तीव्र पुतलियाँ
राह कई सदियों से तुम्हारी
मनों की मधुर अठखेलियाँ
चाह रही थी संगत तुम्हारी
यह स्वर्ण शृंखला गूंथें दो पल।
आँचल का एक छोर बँधा है
रिश्तों की परिभाषा में
एक नया रिश्ता हम गूँथ रहे हैं
पाने को मन की थाहें
अस्तित्वों को परिभाषित करें दो पल।
आशाएँ निमिषों में भरकर
अंजुलियों से बाँटी हमने,
सुख के कुछ चंचल क्षण
जी भरकर लुटाए हमने
किंतु अब अपनी पारी में
क्या आशाएँ समाप्त हो गईं ?
कहाँ गई सकारात्मकता की अनुभूति?
और सद्गुणों का दिग्दर्शन कहाँ गया?
इनको भी उगने दें दो पल।
शनिवार, 1 जून 2019
गुरुवार, 30 मई 2019
बहार
ज्योति नामदेव
मौसम तो लाया है बहार
किन्तु बिखर चुका मेरा संसार
ये प्रकृति मेरे लिए बनी है अंगार
बस तुम एक बार आ जाओ
फूलों पर मंडरा रहे है भंवरे
बादल भी उमड़ -उमड़ कर गरजे
किन्तु मै बनी निष्ठुर प्राण
बस तुम एक बार आ जाओ
बुलाते तुझे वो नदिया के धारे
पुकारे तुझे वो चन्दा- सितारे
है कहाँ तू ओ मेरे उजियारें
बस तुम एक बार आ जाओ
नैनो के अश्रु भी अब सूख गए
क्यों वो हमसे आज रूठ गए
फिर से बनो मेरे जीवन -शृंगार
मेरी सूनी जिंदगी में आये बहार
बस तुम एक बार आ जाओ
-0-
मंगलवार, 28 मई 2019
बुधवार, 22 मई 2019
रचनाकार
1-ओह! चाँद / डॉ. कविता भट्ट
चाँद हथेली पर उग नहीं सका
सपनों वाली निशा से थी आशा
सपनों वाली निशा से थी आशा
अश्रु-जल से बहुत सींची धरा
रेखाओं की मिट्टी न थी उर्वरा
रेखाओं की मिट्टी न थी उर्वरा
खोद डाली बीहड़ की बाधा
मरु में परिश्रम अथाह बोया
मरु में परिश्रम अथाह बोया
रानियों के कारागृह में है या
मेरी हथेली सच में बंजर क्या
मेरी हथेली सच में बंजर क्या
समय से संघर्ष है रेखाओं का
स्वप्न- निशा न आएगी है पता
स्वप्न- निशा न आएगी है पता
किन्तु जाने क्यों मन नहीं मानता
हथेली पर चाँद उगाना ही चाहता
हथेली पर चाँद उगाना ही चाहता
शुभकामनाएँ- सपने देखते रहना
निष्ठा से चाँद उगेगा- चाँदनी देगा
निष्ठा से चाँद उगेगा- चाँदनी देगा
कल्पना पर तो वश है ही तुम्हारा
ओह! चाँद असीम चाँदनी लाया
-0-
ओह! चाँद असीम चाँदनी लाया
-0-
2-नीरवता के स्पंदन / डॉ. कविता भट्ट
मनध्वनियाँ प्रतिध्वनित करते, ओढ़कर एकाकीपन
प्रचुर संख्या में, चले आते हैं नीरवता के स्पंदन।
नीरवता के स्पंदनों को निर्जीव किसने कहा है?
प्रतिक्षण इन्होंने ही मन को रोमांचित किया है।
साँझ के आकाश पर कुछ बादल विभा के घनेरे से,
स्मृतियों में प्रणय-क्षण कुछ उस साथी के-मेरे से।
अन्तर्द्वन्द्वों के भँवर में खोया उद्विग्न सा मन,
बीते कल संग खोजता ही रहा उन्मुक्त क्षण,
और अब, चादर की सलवट से कभी बोलते हैं,
मेरे बनकर, परदों की हलचल से बहुत डोलते हैं।
हैं प्रतिबद्ध, यद्यपि हो निशा की कल-कल,
हैं चेतन प्रतिक्षण, यद्यपि दिवस जाये भी ढल।
मानव स्वभाव में व्यर्थ इनको न कहना,
ध्वनिमद के अहं स्वरों में कदापि न बहना।
अस्तित्व में विमुखता-अनिश्चितता है ही नहीं,
परन्तु संदेह-उद्वेगों की विकलता है ही कहीं।
अस्तित्व रखते हैं-नीरवता के स्पंदन,
निःसंदेह, हाँ वही-नीरवता के स्पंदन-
जिनमें है प्रशंसा, माधुर्य, स्मरण, चिंतन,
अपने भाव अपनी ही प्रतिक्रिया के टंकण।
सफलता-असफलता में वे ही पुचकारते हैं,
धीरे से- अधर माथे स्पर्श कर सिसकारते हैं।
रात को निश्छल किंतु सकुचाए चले आते हैं,
नीरवता के स्पंदन अकस्मात् मेरा दर खटकाते हैं।
प्रचुर संख्या में, चले आते हैं नीरवता के स्पंदन।
नीरवता के स्पंदनों को निर्जीव किसने कहा है?
प्रतिक्षण इन्होंने ही मन को रोमांचित किया है।
साँझ के आकाश पर कुछ बादल विभा के घनेरे से,
स्मृतियों में प्रणय-क्षण कुछ उस साथी के-मेरे से।
अन्तर्द्वन्द्वों के भँवर में खोया उद्विग्न सा मन,
बीते कल संग खोजता ही रहा उन्मुक्त क्षण,
और अब, चादर की सलवट से कभी बोलते हैं,
मेरे बनकर, परदों की हलचल से बहुत डोलते हैं।
हैं प्रतिबद्ध, यद्यपि हो निशा की कल-कल,
हैं चेतन प्रतिक्षण, यद्यपि दिवस जाये भी ढल।
मानव स्वभाव में व्यर्थ इनको न कहना,
ध्वनिमद के अहं स्वरों में कदापि न बहना।
अस्तित्व में विमुखता-अनिश्चितता है ही नहीं,
परन्तु संदेह-उद्वेगों की विकलता है ही कहीं।
अस्तित्व रखते हैं-नीरवता के स्पंदन,
निःसंदेह, हाँ वही-नीरवता के स्पंदन-
जिनमें है प्रशंसा, माधुर्य, स्मरण, चिंतन,
अपने भाव अपनी ही प्रतिक्रिया के टंकण।
सफलता-असफलता में वे ही पुचकारते हैं,
धीरे से- अधर माथे स्पर्श कर सिसकारते हैं।
रात को निश्छल किंतु सकुचाए चले आते हैं,
नीरवता के स्पंदन अकस्मात् मेरा दर खटकाते हैं।
3-आँसुओं का खारापन / डॉ. कविता भट्ट
विशाल सागर किन्तु खारा
आँसू भी अनन्त हैं खारे ही
कितना बड़ा अचरज है
सागर की एक बूँद भी नहीं पीते
परन्तु आँसू पीना ही पड़ता है
अस्तित्व की पहली शर्त जो है
हम जीवित हों या न हों
जीवित होने का ढोंग करते रहते हैं
और आँसुओं का खारापन
उपहास करता है; हमारा जीवनभर
हम निरुत्तर होकर अपलक निहारते
जबकि हमें प्रश्नचिह्न अच्छे नहीं लगते...
-0-
http://www.rachanakar.org/2019/05/blog-post_73.html
आँसू भी अनन्त हैं खारे ही
कितना बड़ा अचरज है
सागर की एक बूँद भी नहीं पीते
परन्तु आँसू पीना ही पड़ता है
अस्तित्व की पहली शर्त जो है
हम जीवित हों या न हों
जीवित होने का ढोंग करते रहते हैं
और आँसुओं का खारापन
उपहास करता है; हमारा जीवनभर
हम निरुत्तर होकर अपलक निहारते
जबकि हमें प्रश्नचिह्न अच्छे नहीं लगते...
-0-
http://www.rachanakar.org/2019/05/blog-post_73.html
रविवार, 19 मई 2019
बुद्ध-चरित
डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
लेखनी उठी बुद्धचरित लिखने
मौन और विदीर्ण लगी दिखने।
अब बुद्ध पूर्णिमा अवसान पर है,
लेखनी की दृष्टि युग-ध्यान पर है।
वह अब पीड़ा लिखने को आतुर,
देख रही मरते बुद्ध मानव-भीतर।
मोह में रमा हुआ सिद्धार्थ- आज
देखता मात्र अपने ही सुख-साज।
दुःख न दे सिद्धार्थ को वृद्ध पीड़ा,
विचलन नहीं, मृत्यु लगती क्रीड़ा।
जो दूजे की पीड़ा से विचलित था,
सुख में हो भी दुःखी-उद्वेलित था।
दूर की कौड़ी है, आत्म-विश्लेषण,
तिल-तिल मरता बुद्ध, हुआ क्षरण।
यह युग अब आत्म-प्रवंचन का,
विरक्ति नहीं, भौतिक मंचन का।
सिद्धार्थ भाव छोड़ बुद्ध उभरेगा,
क्या प्रपंची मानव स्व-रूप धरेगा? .
-0-
शुक्रवार, 17 मई 2019
दो कविताएँ
ज्योति नामदेव
1-फिर याद आई
आँखें छलकने पर, एक गुमसुम कहानी याद आई
आज फिर एक, याद कोई चोट पुरानी आई
************************
भीख माँगते, नंगे बदन में उस बच्चे ने पुकारा
अंदर तक चीरती, एक खुददारी याद आई
*************************
क्यों हम इन नन्ही कलियों को पहले ही मुरझा देते है
शायद उनके भी होंठो पर, मुस्कान बनकर जिंदगानी आई
*************************
ऐ रब्बा अगर कुछ कर सकता है तो कर इतना
सड़क पर कोई फूल भीख ना माँगे,अरज दीवानी लाई
*************************
आँखे छलकने पर, एक गुमसुम कहानी याद आई
आज फिर एक याद, कोई चोट पुरानी याद आई
-0-
2-चाँद -सा मुखड़ा
क्या परिभाषा हो सकती है,
चाँद -से मुखड़े की,
वो जो वासना की ओर
धकेलता है
या फिर वो
जो वासना से पार ले जाता है,
विश्व के सारे प्रेमी
सुन्दर तन, सुन्दर सूरत
को कहते है
चाँद- सा मुखड़ा
लेकिन मै सहमत नहीं
इस उपमा से
चाँद -सा मुखड़ा बनने
के लिए त्यागना
पड़ता है अपना सर्वस्व
जीवन -धारा
तब जाकर बनती है, सीता
तब जाकर बनती है, अहल्या
तब जाकर बनती है, तुलसी
तब जाकर बनती है, गीता
नामों में क्या रखा है जनाब
अपनी कस्तूरी को खोजिए
और आप भी बन जाइए
चाँद -सा मुखड़ा
किसी जिंदगी का टुकड़ा
-0-
मंगलवार, 14 मई 2019
माँ
माँ .....डॉ. कविता भट्ट
माँ जब मैं तेरे पेट में पल रही थी
मेरे जन्म लेने की ख़ुशी का रास्ता देखती
तेरी आँखों की प्रतीक्षा और गति
उस उमंग और उत्साह को
यदि लिख पाती
तो शायद मैं लेखिका बन जाती
पहाड़ के दुरूह
चढ़ाई-उतराई वाले रास्तों पर
घास-लकड़ी-पानी और तमाम बोझ के साथ
ढोती रही तू मुझे अपने गर्भ में
तेरे पैरों में उस समय जो छाले पड़े
उस दर्द को यदि शब्दों में पिरो लेती
तो शायद मैं लेखिका बन जाती
तेज़ धूप-बारिश-आँधी में भी
तू पहाड़ी सीढ़ीदार खेतों में
दिन-दिन भर झुककर
धान की रोपाई करती थी
पहाड़ी रास्तों पर चढ़ाई-उतराई को
नापती तेरी आँखों का दर्द और
उनसे टपकते आँसुओं का हिसाब
यदि मैं काग़ज़ पर उकेर पाती
तो शायद मैं लेखिका बन जाती
तेरी ज़िंदगी सूखती रही
मगर तू हँसती रही
तेरे चेहरे की एक-एक झुर्री पर
एक-एक किताब अगर मैं लिख पाती
तो शायद मैं लेखिका बन जाती
आज मैं हवाई जहाज़ से उड़कर
करती रहती हूँ देश-विदेश की यात्रा
मेरी पास है सारी सुख-सुविधा
गहने-कपड़े सब कुछ है मेरे पास
मगर तेरे बदन पर नहीं था
बदलने को फटा-पुराना कपड़ा
थी तो केवल मेहनत और आस
मैं जो भी हूँ तेरे उस संघर्ष से ही हूँ
उस मेहनत और आस का हिसाब
काश! मैं लिख पाती
तो शायद मैं लेखिका बन जाती ...
-डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री