डॉ.कविता भट्ट
ऐसा मुझे मत बोलो
प्रिय !
पत्थरों से ही फूटती
हैं धाराएँ
पहाड़ियों का सीना चीर
कर
उन्मुक्त होकर तृप्त
करती हैं
प्यासे तन-मन, कण-कण को;
किन्तु इन्हें द्रवित
करने को
चाहिए- निश्छल
भगीरथ-प्रयास
शंकर -सा अडिग, अदम्य
साहस,
जो पवित्र उफनती धाराओं को
मैं चाहती हूँ द्रवित होना;
किन्तु मुझे प्रतीक्षा है-
निश्छल भगीरथ-शंकर की
जो पिघला सके पाषाण- हृदय !
और जलधारा में रूपांतरित
मेरे चिर-प्रवाह को सँभाले-सँवारे।
वचनबद्ध हूँ- तृप्ति हेतु; किन्तु
तुम भगीरथ-शिव बनने का
वचन दे सकोगे क्या प्रिय ?
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भाव एवं वैचारिक द्वन्द्व को गहनता से अभिव्यक्त करती सशक्त कविता। प्रत्यक्ष रूप से जो व्यक्ति जैसा दिखाई देता है, वैसा ही हो , ज़रूरी नहीं। पत्थरों के नीचे असीम जल का सोता छुपा हो सकता है । आवश्यकता है प्रयास करने वाले की और और उस उद्दाम प्रेम को सँभालने और सँवारने की। ये पंक्तियाँ हृदय को छू गई-'मैं चाहती हूँ द्रवित होना;
जवाब देंहटाएंकिन्तु मुझे प्रतीक्षा है-
निश्छल भगीरथ-शंकर की
जो पिघला सके पाषाण- हृदय !
और जलधारा में रूपांतरित
मेरे चिर-प्रवाह को सँभाले-सँवारे।' वह भी इसलिए ज़रूरत है; क्योंकि वह उफनती धारा-पवित्र है।
हार्दिक आभार महोदय आपके द्वारा किये गये उत्साहवर्धन हेतु।
जवाब देंहटाएंप्रबल भावपक्ष व शिल्पगत खूबियों ने कविता को सौंदर्य प्रदान किया है । कविता पढ़ने में आनंद मिला । बहुत बधाई । बधाई लो कविता ।
जवाब देंहटाएंआपके स्नेह हेतु आभार, महोदया
हटाएंसुंदर भावपूर्ण सृजन ...हार्दिक बधाई ।🌷🌷🌷🌷🌷
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन के लिए बहुत-बहुत बधाई कविता जी।
जवाब देंहटाएंआप सभी का आभार, भविष्यकालीन आत्मीयता की आशा है।
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारी रचना...मेरी बहुत बधाई...|
जवाब देंहटाएंद्रवित करने वाली हृदय को स्पर्श करने वाली रचना
जवाब देंहटाएंआप सभी को हार्दिक धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंआप सभी को हार्दिक धन्यवाद
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