प्रो0 इन्दु पांडेय खंडूड़ी
जितना गहरा है,
ये समंदर,
उससे कई गुना है,
मेरे अंदर।
मुम्बई की गर्मजोशी,
नन्हीं- सी एंजल
दिव्य- सी रौशनी,
अनुभूति प्रांजल।
मन मेरा भरा -सा,
बैचेन और विकल,
बोलना, सीखना और
सवाल है अटल ।
आखिर मासूम को,
मैं क्या समझाऊँ,
अपने अधकहे
भाव कैसे बताऊँ
खेलते, इठलाते,
वो रूठ जाती है,
अधूरे से बोल है,
उसे कैसे मनाऊँ?
कोई बड़ा होता
लिखकर बताता,
पर इस मासूम को,
कैसे सच समझाता?
पर हार नहीं मानता
जिद्द अपनी जानता
जंग कभी नहीं छोड़ता
जीत तो निश्चित है,
या मैं बोलूँगा, या
ये एंजल मेरी,
लिखना सीख जाएगी।
फिर कोई सवाल
अनुत्तरित नहीं होगा।
अपने जज्बात,
अपनी अभिव्यक्ति,
अपने एहसास और,
बिखरी मुस्कान होगी।
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न बिम्बो की धक्कामुक्की,न दुरूह शब्दों का आलम्बन,
जवाब देंहटाएंबस भाव की प्रबलता है जिसके सहारे सहजता से,सुगमता से इन्दु जी ने
एक कठिन द्वंद्व को अति सम्पेषणीय बना दिया है । बधाई कविता की एक नयी धारा विकसित करने के लिए ।
मन में चलते द्वन्द की सुंदर, सहज प्रस्तुति! हार्दिक बधाई इंदु जी !!!
जवाब देंहटाएं~सादर
अनिता ललित
सुन्दर सहज अभिव्यक्ति, बधाई।
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