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मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

बेला – आजन्म आजादों की


डॉ. कविता भट्ट
(हे न ब गढ़वाल विश्वविद्यालय,श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड )

बेला – आजन्म आजादों की साहब!
खंडित प्रतिमानों के मोल न पूछो
शेखर-चन्द्र रखे आजादी के युग वे     
उनके कैसे गूँजे थे वे बोल न पूछो !

खुली हवा में साँस ली जिन्होंने पहली    
वे अब कहते हैं; ये सब झोल न पूछो
छत पर रखते गमले सुंदर फूलों वाले 
नींव के पत्थर कितने अनमोल न पूछो!

राष्ट्र-भावना दम भर तो दम भर ले 
संभावना के दाम और खोल न पूछो
लोकतंत्र- कर्त्तव्य स्वाहा अधिकारों में
अब इस बजते ढोल की पोल न पूछो !

बिन संघर्ष मिले इन्हें शिक्षा के मन्दिर
वीर सपूतों के बलिदानों के तोल न पूछो  
चक्रव्यूह में फँसे युवा; कैसा देश कैसा प्रेम?
विष नारों में घुला; हालत डाँवाडोल न पूछो !
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गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

दो मुक्तक

दो मुक्तक
  1-डॉ. कविता भट्ट
रेत को मुट्ठी में भर करके  हम  फिसलने नहीं देते ।
वक्त कितना भी हो मुश्किल ,खुद को बदलने नहीं देते॥
 डराएँगे क्या अँधेरे  अपनी बुरी निगाहों से हमें ।
फ़ख्र  तारों पर  है जो उजालों को ढलने नहीं देते ॥
*                       
2-रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
डर था ज़िन्दगी न जाने किधर जाएगी ।
गूगल से साभार
रेत बनकर ये  किसी दिन बिखर जाएगी ॥
तुम जो अचानक मिले  आज हमें मोड़ पर ।
अब   हमको लगा  कि क़िस्मत सँवर जाएगी॥

शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

रिश्ते

प्रो0 इन्दु पांडेय खण्डूड़ी

रोजमर्रा की आपाधापी
रिश्तों के गुणाभाग,
भावों के जोड़ घटाव
अद्भुत से घटते संयोग ।
लगाव के नाम पर,
अलगाव के भूभाग,
प्रेम की आस में,
खंडित विश्वास ।
मधुर संगीत की धुन
मुस्कराहट ओढ़े,
मशीन बन चुके
अपने ही तर्क बुने।
अंतर्मन के उलझे,
अनमने जज्बात
जीने के लिये कुछ,
जरूरी सी बात ।
टूटती हुई गिरती
सहारे की दीवारें
बेचैनी की बारिश
सुकून खोजती निगाहें।
उथल पुथल से,
सराबोर, ये पल
अनजान, अनिश्चित
अनवरत से छल ।
फिर भी हम और तुम
व्यस्तता से भरे,
राह खोजते रहे
कुछ मुस्कराहट के पल।

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