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मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

बेला – आजन्म आजादों की


डॉ. कविता भट्ट
(हे न ब गढ़वाल विश्वविद्यालय,श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड )

बेला – आजन्म आजादों की साहब!
खंडित प्रतिमानों के मोल न पूछो
शेखर-चन्द्र रखे आजादी के युग वे     
उनके कैसे गूँजे थे वे बोल न पूछो !

खुली हवा में साँस ली जिन्होंने पहली    
वे अब कहते हैं; ये सब झोल न पूछो
छत पर रखते गमले सुंदर फूलों वाले 
नींव के पत्थर कितने अनमोल न पूछो!

राष्ट्र-भावना दम भर तो दम भर ले 
संभावना के दाम और खोल न पूछो
लोकतंत्र- कर्त्तव्य स्वाहा अधिकारों में
अब इस बजते ढोल की पोल न पूछो !

बिन संघर्ष मिले इन्हें शिक्षा के मन्दिर
वीर सपूतों के बलिदानों के तोल न पूछो  
चक्रव्यूह में फँसे युवा; कैसा देश कैसा प्रेम?
विष नारों में घुला; हालत डाँवाडोल न पूछो !
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2 टिप्‍पणियां:

  1. दिल को छू गई आपकी कविता।अगर आज देश की युवा पीढ़ी गुमराह होती है तो यह बहुत दुःखद होगा।आपकी चिन्ता जायज़ है कविता जिम

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