अनिमा दास
आऊँगी... ऐसा कहा था
उसने,
किंतु शून्य लेकर आएगी,
यह नहीं कहा था।
नहीं कहा था कि
रक्त-मेघों की वृष्टि
होगी,
जीवितों को कर्म-ग्रह
से
धर्म-ग्रह पर्यंत की
यात्रा में,
इस जन्म की सत्यता
परिलक्षित होगी...
नहीं कहा था उसने।
सूर्य की भी
प्रतिछाया जलती
रहेगी...
जल के वाह्य स्तर
हिमखंड में,
उत्तप्त रहेगा लीन
होकर भी...
उस प्रतिछाया में...
वह उभरती एक
कुमारी अग्नि कणिका- सी होगी,
यह नहीं कहा था...
मैं पृथ्वी को उसका
सौंदर्य पुनः कर
प्रदान,
उसका शृंगार करूँगी,
यह अवश्य कहा था...
सुना है मैंने...
सुन रहा था मेरा
अंतर्मन...
जब अश्रु- स्रोत में
दयनीयता बह रही थी,
नीरव वेदना व
मौन क्रंदन की भिक्षा
में,
मूक प्रार्थना में,
विदग्ध रजनी थी...
हाँ... उस समय
वह भी सुन रही थी...
अनंत प्रलय का
आशीर्वाद भी दिया था
उसने...
जब मेरी तूलिका की
निविड़ एक पीड़ा
दिगंत स्पर्श कर रही
थी...
कर नतमस्तक मैं भी...
महानिद्रा का आवाहन कर
रही थी...
मैं उसे सुन रही थी...
यह भय नहीं... था एक
आर्तनाद।
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2. मेरा
क्षताक्त इतिहास
आज मैं करती स्मरण
अतीत का,
किस मुहूर्त हुई थी
काराग्रस्त मैं,
कैसे हुई थी
मेरी भूमि रक्तरंजित,
शरीर हुआ था शीर्ण,
हुई थी ध्वस्त मैं।
आज मैं करती स्मरण
अस्त-अस्मिता का,
क्यों हुआ था मेरा
अस्तित्व
अभिशप्त,
क्यों हुई रचित
मेरी करुण कहानी,
विध्वंस के नाट्य मंच
पर
कितने घृणित चरित्र
हुए
आविर्भाव।
मुझे स्पर्श करते हुए,
मुझे
निर्वस्त्र करते हुए,
मुझे कलंकित करते हुए,
मेरे इतिहास को
क्षताक्त करते हुए...
क्या एक क्षण तुमने
यह नहीं किया स्मरण,
मैं हूँ तुम्हारी
जन्मदात्री,
मेरी भूमि पर है
तुम्हारा
समग्र अहं-राज्य...?
इति कविता
दोनों रचनाएँ नारी मन की गहन वेदना को व्यंजित करती हैं। हृदयस्पर्शी सृजन। शुभकामनाएंँ अनिमा जी 🌹
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