डॉ. अनुपम ‘अनन्य’
ऊँचा, विशाल,
धवल तन
धारण कर
पालते नहीं
अहम आवरण
क्षण भर।
तुम्हारे श्वेत शीतल
उत्तुंग शिखर पर
रमते हैं
शिव के अनादि चरण
शाश्वत सानिध्य यह
अमृत जीवन का
प्रत्यक्ष प्रमाण रहा
सृष्टि रक्षार्थ
हलाहल पान
जब किया
आशुतोष ने
सन्तप्त हुई विश्व-धरा
उस गरल के
मारक ताप से
शमन कर ताप को
कर दिया था
शांत-शीतल
नीलकंठ को
हे!हिमवान
तुम्हारे! शीतल हृदय से
निःसृत अविरल अमृत जल-धार
तृप्त करती
चर-अचर को
जाकर मिलती है
विशाल सागर से
यह मिलन
सृष्टि के सृजन का
बन कारक
रक्षित
कर रहा
मानवता
को।
👏
जवाब देंहटाएंअपने पेज पर प्रकाशित करने के लिए नीलाम्बरा की सम्पादकीय टीम को हार्दिक धन्यवाद।आदरणीया डॉ कविता मेम को हृदयतल से आभार।
जवाब देंहटाएंउत्तम दार्शनिक भाव, एक सुंदर रचना डॉक्टर "अनन्य " जी।
जवाब देंहटाएं🙏🙏