1- गीत
गाकर ही उठेंगे
- गोपालदास
नीरज
विश्व चाहे या न चाहे,
लोग समझें या न समझें,
आ गए हैं हम यहाँ तो गीत गाकर ही उठेंगे।
हर नज़र ग़मगीन है, हर होंठ ने
धूनी रमाई,
हर गली वीरान जैसे हो कि बेवा की कलाई,
ख़ुदकुशी कर मर रही है रोशनी तब आँगनों में
कर रहा है आदमी जब चाँद-तारों पर चढ़ाई,
फिर दियों का दम न टूटे,
फिर किरन को तम न लूटे,
हम जले हैं तो धरा को जगमगा कर ही उठेंगे।
विश्व चाहे या न चाहे॥
हम नहीं उनमें हवा के साथ जिनका साज़ बदले,
साज़ ही केवल नहीं अंदाज़ औ' आवाज़
बदले,
उन फ़क़ीरों-सिरफिरों के हमसफ़र हम, हमउमर हम,
जो बदल जाएँ अगर तो तख़्त बदले ताज बदले,
तुम सभी कुछ काम कर लो,
हर तरह बदनाम कर लो,
हम कहानी प्यार की पूरी सुनाकर ही उठेंगे।
विश्व चाहे या न चाहे॥
नाम जिसका आँक गोरी हो गई मैली सियाही,
दे रहा है चाँद जिसके रूप की रोकर गवाही,
थाम जिसका हाथ चलना सीखती आँधी धरा पर
है खड़ा इतिहास जिसके द्वार पर बनकर सिपाही,
आदमी वह फिर न टूटे,
वक़्त फिर उसको न लूटे,
ज़िंदगी की हम नई सूरत बनाकर ही उठेंगे।
विश्व चाहे या न चाहे॥
हम न अपने आप ही आए दुखों के इस नगर में,
था मिला तेरा निमंत्रण ही हमें आधे सफ़र में,
किंतु फिर भी लौट जाते हम बिना गाए यहाँ से
जो सभी को तू बराबर तौलता अपनी नज़र में,
अब भले कुछ भी कहे तू,
ख़ुश कि या नाख़ुश रहे तू,
गाँव भर को हम सही हालत बताकर ही उठेंगे।
विश्व चाहे या न चाहे॥
इस सभा की साज़िशों से तंग आकर, चोट खाकर
गीत गाए ही बिना जो हैं गए वापिस मुसाफ़िर
और वे जो हाथ में मिज़राब पहने मुश्किलों की
दे रहे हैं ज़िंदगी के साज़ को सबसे नया स्वर,
मौर तुम लाओ न लाओ,
नेग तुम पाओ न पाओ,
हम उन्हें इस दौर का दूल्हा बनाकर ही उठेंगे।
विश्व चाहे या न चाहे॥
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2-अनीता
सैनी 'दीप्ति'
गाँव
मेरे अंदर का गाँव
शहर होना नहीं चाहता
नहीं चाहता सभ्य होना
घास-फूस की झोंपड़ी
मिट्टी-पुती दीवार
जूते-चप्पल
झाड़ू छिपाने से परहेज करता
वह शहर होने से घबराता है
पूछता है- ”जीवन बसर करने हेतु
सभी को शहर होना होता है?”
आंतोनियो कहते हैं-
“मोहभंग न होते हुए
बिना भ्रम का जीवन जीना।”
जैसे मेड़ पर खड़े पेड़-पौधों के
शृंगार की धुलती मिट्टी
जीवंतता से भर देती है उन्हें
जीवन के कई-कई
अनछुए दिन-रात
दौड़ गए तिथियों का लँगोट पहने
शहर होने की होड़ में
अब पैरों से एक क्षण की बाड़
न लाँघी जाती
नुकीली डाब
पाँव में नहीं धँसती
हृदय को बींधती है,
न अंबर को छूना चाहता है
न पाताल में धँसना चाहता है
थोड़ी-सी जमीं
मेरे अंदर का गाँव जीना चाहता है।
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2-राग
वे राग में डूबे मनुष्य थे
मधुर राग गुनगुनाते रहते थे
हाथों में गुलाबी परचा
कहते -
प्रेम का नग़्मा
पढ़ाते हैं
कंठ सुरों का संगम
वाणी में भाव हिलोरे भरते
जी रहे थे जैसे
जीती है नदी समंदर की प्रीत में
महसूस करते थे संगीत वैसे
जैसे शिशु महसूस करता है माँ की गंध
कोयल के गर्भ से जन्मे
इससे कमतर कहना अन्याय होगा
प्रश्न उठा, फिर क्यों?
अतृप्त हृदय आँखें प्यासी थी!
मैंने
कहा-
तुम बैराग में डूबकर देखो
एक घूँट ही सही,ज़रा पीकर देखो
सूखा हो दरख़्त
कोंपल फूट जाती हैं
हृदय तृप्त, आँखें झूम जाती हैं
इसमें गहरा और भी गहरा
संगीत है पसरा
कोलाहल हो या एकांत
हृदय में संगीत का झरना बहता है।
वे मुझ पर हँसे और उठकर चले गए।
गीत ऋषि का अप्रतिम गीत पढ़वाने हेतु डॉ कविता और आदरणीय कांबोज भैया का हार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएंअनिता सैनी जी को सुंदर रचनाओं हेतु बधाई
बेहतरीन कविताओं का अभिनंदन।
जवाब देंहटाएंबधाई
हार्दिक आभार प्रिय कविता जी, रचनाओं को स्थान देने हेतु।
जवाब देंहटाएंसादर स्नेह।
बहुत सुन्दर रचनाएँ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचनाएँ
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