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गुरुवार, 22 जून 2023

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खोल दो खिड़कियाँ—काव्य संग्रह

सुदर्शन रत्नाकर

 


 लेखन की कोई  आयु नहीं होती और इसका ज्वलंत उदाहरण है  डॉ .गोपाल बाबू शर्मा जिन का अयन प्रकाशन से सद्य प्रकाशित काव्य-संग्रह ‘खोल दो खिड़कियाँ’

इस संग्रह में  उनकी गीतिकाएँ, दोहे, हाइकु एवं व्यंग्य कविताएँ संगृहीत है।

 

गीतिकाओं में आज की परिस्थितियों,समाज की सोच, स्वार्थपरता और उसमें व्याप्त बुराइयों का वर्णन करते हुए लिखा है—

    आज तो आदमी/ आदमी से डरे / और को दोष दें / लोग बने खरे ।

 अपने भी कब अपने अब / बस मतलब की काई है / बस्तियाँ जल रही / हम गीत गा रहे।

 उम्र की एक दहलीज़ पर आकर मनुष्य कितना बेबस हो जाता है और सच्चा भी—

नींद आती नहीं/ गोलियाँ खा रहे / साथ जाता न कुछ / आदमी ऐंठा रहे।

 

दूसरे भाग में गागर में सागर भरते दोहे हैं जिनमें कवि ने सामाजिक बुराइयों, मानवीय मूल्यों के ह्रास, सरकारी तंत्र में कुव्यवस्था,वर्तमान राजनीति में होने वाली धाँधली, निजी स्वार्थ पर कटाक्ष करते हुए सुंदर विश्लेषण किया है। जनता की कौन परवाह करता है।धर्म के नाम पर लोगों को ठगा जाता है, वोट बैंक बनाए जाते हैं-

लोक तंत्र में रोज़ ही, नेता करें हलाल।

 जनता को ठेंगा दिखा, स्वयं चीरते माल।।

दु:शासन हैं हर जगह, कहाँ द्रौपदी जाय।

बिना सुदर्शन चक्र के , कैसे लाज बचाय।।

अस्पताल तब जाइए, घंटों फुर्सत होय।

बिना सिफ़ारिश आँख क्या,दाँत न देखे कोय।।

    कहने को तो नारी का उत्थान हो रहा है लेकिन वह एक सीमा तक ही सीमित है—

नारी तक सीमित हुआ, नारी का उत्थान। कितनी हैं तेजस्विनी, कितनी बनी महान।।

हम कितना भी कहें बेटा- बेटियाँ समान हैं;  लेकिन उसकी स्थिति में आज भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। उसे पूरे अधिकार प्राप्त नहीं और न ही वह सुरक्षित है—

घर में बेटी को कहाँ, बेटे जैसा प्यार।

 बाहर का भी क्या पता, किसकी बने शिकार।

 

तीसरे खंड में विविध विषयों को संजोए एक सौ दो हाइकु हैं। यदि जिज्ञासु पाठक उत्कृष्ट हाइकु पढ़ना चाहें तो डॉ. गोपाल बाबू शर्मा के हाइकु पढ़कर अपनी पिपासा को शांत कर सकते हैं। इन हाइकुओं में कवि के जीवन दर्शन के साथ ही समाज में व्याप्त बुराइयों, विद्रूपताओं, ज़िंदगी की दुरुहता, पर्यावरण का चित्रण किया गया है—-

 

नहीं फूलों सी / आज की ज़िंदगी/ सेज शूलों की।

  अंधविश्वास/ अभी तक जीवित / बने विनाश।

 

 झूठ की नींव पर टिके रिश्ते मज़बूत नहीं होते कभी भी टूट सकते हैं—

 रिश्ते न रहें / झूठ की नींव पर/ कभी भी ढहें।

         घर परिवार में जिस संवेदनशीलता, आपसी सहयोग, स्नेह, प्यार, सुरक्षा, विश्वास, सम्मान की आवश्यकता होती है, वे सब खंडित हो रहे हैं जिसके कारण कवि का चिंतित होना स्वाभाविक है—

ईंट-पत्थर/ मकान ही मकान/ कहाँ है घर।  

अपना घर / फिर भी बुढ़ापे में / डर ही डर। 

विकास के नाम पर हम प्रकृति से दूर हो रहे हैं उसके के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है—

कैसा विकास/ होली भी मिलावटी/ टेसू उदास।

हो रही रेड /  विकास की आँधी में/ ढहते पेड़।

लोकतंत्र में सबको समान अधिकार प्राप्त होते हैं लेकिन झूठ फ़रेब पर आधारित दोमुँही राजनीति में ऐसा कहाँ है। नेताओं का तो घर भरा रहता है लेकिन गरीब तो हर प्रकार से लुटता रहता है—

ख़ास की छूट/ लोकतंत्र का अर्थ/ आम को लूट।

देश की खाट / खड़ी की जिन्होंने भी / उन्हीं के ठाठ।

 

 कवि राजनीति की गिरती साख को देखकर चिंतित हैं तभी तो समाज में सुधार लाने के लिए  वह जनता को सचेत करते हैं—

  नींद से जागें / समाज को बदलें / दूर न भागें।

दीप हो जाएँ / भटके पथिकों को / राह दिखाएँ।

अंतिम खंड में व्यंग्य- कविताएँ हैं-

 

      हमारे नेता यह कहते नहीं थकते कि हमारे देश की जनता को सब सब सुख-सुविधाएँ प्राप्त हैं लेकिन वे इस सच से अनभिज्ञ हैं कि दो जून की रोटी के लिए अपने बच्चों तक को बेच देते हैं।उनकी जान की कोई क़ीमत नहीं उन्हें पशुओं से भी बहत्तर समझा जाता है  विकास के नाम पर सरकारी योजनाएँ  बदहाली हालात में लोगों को चिढ़ाती हैं। (स्मार्ट -शहर सच, तेंदुआ ,सुव्यवस्था )

  सच तो यह है कि / अब भी ग़रीबी के कारण / आदिवासी इलाक़े में / आठ माह की बिटिया / दो सौ रुपये में बिकती है।

ठीक भी है / अब,/ तेंदुओं की / ज़्यादा परवाह है / इंसान से अधिक / उसकी  चाह है।

 

फिर भी नेता ग़रीबों के नाम पर राजनीति करते है और बेचारी जनता हर बार उनके झूठे आश्वासनों में फँस जाती है।(गरीब)

    बे-चारे / गरीब ही काम आते है / झूठ-मूठ कुछ पाकर भी/ खुश हो जाते हैं।

   भ्रष्टाचार और बेईमानी से धन कमाने वाले लोग सभी सुख-सुविधाओं से लैस रहते हैं, सुखमय जीवन जीते हैं लेकिन ईमानदार लोग दो-जून रोटी को तरसते हैं।(फ़र्क़)

 

देश की क़ानून व्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए (मौन) कविता में कवि कहते हैं कि दरिन्दे गुनाह करके भी वर्षों निर्णय न होने के कारण सज़ा से बचते रहते हैं, पीड़ित को न्याय नहीं मिल पाता।कवि चिंतित हैं कि इसका उत्तर, समाधान किसके पास है।

 

मीडिया का छोटी-सी बात को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करना, साहित्यिक संस्थाओं का सम्मान के नाम पर धंधा करके पैसा और प्रसिद्धि पाना, सरकारी तन्त्र की बीमार मानसिकता  भ्रष्टाचार आदि बुराइयों का कवि ने छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से गहरा कटाक्ष किया है।    (समाचार, पैसा और प्रसिद्धि, आमदनी प्रचार, विकास, स्वास्थ्य-केन्द्र )

  मुझे विश्वास है डॉ गोपाल बाबू शर्मा की कृति खोल दो खिड़कियाँ पाठकों के मन को ज़रूर भाएँगी।

अनन्त शुभकामनाएँ ।

-0-खोल दो खिड़कियाँ: डॉ गोपाल बाबू शर्मा, पृष्ठ:80, मूल्य: 180, वर्ष:: 2022 , अयन प्रकाशन, नई दिल्ली

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6 टिप्‍पणियां:

  1. अत्यंत सुंदर समीक्षा...उच्चकोटि की रचनात्मकता..... 🙏

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  2. बहुत सार्थक समीक्षा है, आप दोनो को बधाई

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  3. जितना उत्कृष्ट संग्रह उतनी ही सटीक एवं सारगर्भित समीक्षा

    शर्मा जी की लेखनी बहुत ही सधी हुई है, उनकी व्यंग्य रचनाएँ बहुत ही बढ़िया होती है। वे सामाजिक सरोकार के कवि है। उन्हें नमन

    सुदर्शन जी को इतने सटीक विश्लेषण के लिए बधाई

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  4. विविध विषयों पर उत्कृष्ट पुस्तक. सार्थक समीक्षा के लिए आदरणीया रत्नाकर दीदी और पुस्तक के लिए आदरणीय गोपाल बाबू जी को हार्दिक बधाई.

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  5. उत्कृष्ट पुस्तक की सारगर्भित समीक्षा... आदरणीय गोपाल बाबू जी एवं आदरणीया रत्नाकर दी को हार्दिक बधाई।

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  6. कवि के मर्म तक पहुँच संग्रह की सभी विधाओं की बहुत सुंदर समीक्षा। जब कवि की कविता सर्वव्यापकता लिए होती है तो उसकी पहुँच दूरगामी होती है ।
    आदरणीय गोपाल बाबू जी और सुदर्शन दी को हार्दिक बधाई ।

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