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शनिवार, 29 अप्रैल 2023

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 प्रॉ. विनीत मोहन औदिच्य

  1-प्रेम - अमिय

एकाकी अस्तित्व जूझ जब, संघर्षों से हारा।

परछाई बन विपदाओं से, तुमने मुझे उबारा।।

प्रेम अमिय पीकर अधरों से, जीवन नूतन पाया।

तप्त बदन करती आनंदित, शीतल कुंतल छाया।।

 

बरसाना की राधा बन तुम, हृदय कुंज में बसती।

व्यथित दृगों से हिरणी सम तुम, राह मेरी हो तकती।।

कालिंदी तट बाट निहारूँ, निस-दिन मगन तुम्हारी।

परम प्रकाशित रूप निरख कर, जाऊँ नित बलिहारी।।

  

ध्वनित हो रहा नाम तुम्हारा, हर क्षण भूमंडल में।

जगमग तव सौंदर्य झलकता, कांतिमान कुंडल में।।

यात्रा दुष्कर पूर्ण हुई प्रिय, पास तुम्हारे आकर।

अनिर्वाच्य विश्रांति मिली है, गोद सुकोमल पाकर।।

 

श्वास है सीमित, प्रेम असीमित, शेष न मृगतृष्णा है।

राधा मय है जल, थल, नभ ये, तुझसे ही कृष्णा है।।

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 2-पाषाण शिला

 हूँ शापित पाषाण शिला,सहती तीक्ष्ण धूप सूरज की।

यामिनी हिम शीत अंबर, बारिशों में धार जल की।

वियोगी मुझको भिगोते, भावना के ज्वार से बस।

सूख जाता दृगों का जल, सिक्त रह जाता है अंतस।।

 

मौसमों का वार झेलूँ, समय से ना त्राण मुझको।

वेदना रिस-रिसके बहती, मत कहो पाषाण मुझको।।

साथ में है कौन मेरा, सहारा जिसका मैं ताकूँ?

नयन के आगे अँधेरा, गवाक्षों में कहाँ झाँकू?

 

मौन दिखती हूँ भले ही मुखर,हो कुछ कह रही हूँ।

मानवों की यातना को,विवश जड़ बन सह रही हूँ।

पाशविक संसार में अब, छा गया है तम घनेरा।

सो रहे बेसुध मनुज सब, दूर दिनकर का सवेरा।।

 

हूँ अहल्या भी नहीं मैं, राम की जो राह देखूँ।

भाग्य रेखा मिट चुकी है, ना हृदय की चाह देखूँ।।

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