आचार्य देवेन्द्र देव
कल्पित रंग-महल में, तुमको, सजती देख, प्रिये!
गीत हमारे, खड़े-खड़े मुस्काते रहते हैं।।
अर्धगुलाबी देह चन्दनी, हरियल साड़ी में,
रस-गन्धित आकाशी बिजली जैसी लगती है।
सिन्दूरी रेखा के नीचे चमकीली बिंदिया,
क्या बताएँ,झिलमिल करती कैसी लगती है?
मन-मिलिन्द को अपने पास बुलाते रहते हैं।।
जब तुम थीं, तब, दिन लगते थे हुरियारों जैसे,
इन्दुमती रातें लगती थीं ज्योति-नहायी-सी।
मेरे सौभाग्यों के सीमित अँगने में तुम थीं,
विधि के द्वारा रम्य रूप की नदी बहायी-सी।
अपने ही सपनों के तन सहलाते रहते हैं।।
इतना सब कुछ होने पर भी है सन्तोष यही,
दुनियादारी, मन से तुमको दूर न कर पाई।
सौगन्धों के अनुबन्धों से मिली शक्ति, हमको,
अपना जीवन खोने को मजबूर न कर पाई।
घंटों, दिवसों, सालों तक बहलाते रहते हैं।।
प्रीति-रीति के प्रणत पखेरू हम उड़ते रहते,
कस्तूरी की गन्ध लपेटे अपनी पाँखों में।
अधमुण्डित बैरागी जैसे फिरते रहते हैं,
आँज-आँज सुधियों का काजल गीली आँखों में।
गाँव-गली क्या, दर-दर अलख जगाते रहते हैं।।
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अति सुंदर
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