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रविवार, 28 अगस्त 2022

386-रस - रसिक - रसवंत

 डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

 


रसिक सुनो!

केसरिया सूरज

जब नदी में घुल रहा होगा

साँझ बुन रही होगी सुरमई धागे

पहाड़ियों की सलाइयों से

रात की डोरी पर

तुम फैला रहे होगे-

अनंत प्रेम रस में भीगे सपने

कनखियों से देख रही हूँगी


चुपके से तुमको मैं

छम्म से आकर तंद्रा तोड़ दूँगी

जब भी मेरी पैंजनियाँ बजेंगी

तुम्हारे मन के गेह में

तुम एक चम्पा की कली

मेरे उलझे हुए बालों में लगाना

और मैं तुम्हारे मन की दीवारों पर

प्रेम की अनंत मुद्राओं से

चित्रांकन करूँगी कल्पनाओं का

वचन है भर दूँगी सारे रंग


डोरी वाले सारे सपनों में

अनंत रस में भीगते रहेंगे-

रस से रसिक, रसिक से रसवंत

होने की यात्रा में

केवल साथ तुम्हारा चाहिए।

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