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सोमवार, 25 जनवरी 2021
गुरुवार, 14 जनवरी 2021
183-अम्बर से अवनि तक को समेटती पत्रिका- नीलाम्बरा
अम्बर से अवनि तक को समेटती पत्रिका- नीलाम्बरा [ नीलाम्बरा शब्द को क्लिक करके पत्रिका को पन्ना-पन्ना पलटकर पढ़ा जा सकता है ]
ऋता शेखर 'मधु'
रचनाकारों के बीच संवाद स्थापित करेगा। एक और महत्त्वपूर्ण बात कविता जी ने कही कि साहित्य सृजन मनोरंजन के लिए न होकर आत्मरंजन के लिए हो। समाज को सही दिशा की ओर अग्रसर करने वाले हों।
पत्रिका में 64 रचनाकारों की उत्कृष्ट
रचनाओं को शामिल किया गया है।
कोलाज के अंतर्गत डॉ. सुधा गुप्ता जी का मनोहारी चोका है ,जिसके बिम्ब प्रभावित करते हैं। बामनी बया, बिटौड़े,
घराती अमराई, फूलों का जामा, वर बसन्त विशेष रूप से आकर्षक बिम्ब हैं।
गीत में स्मृतिशेष किशन सरोज जी की रचना ,धर गए दो मेहदी रचे हाथ जल में -दीप व निश्चिंत रहना बहुत भावपूर्ण रचनाएँ
हैं।
डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल जी की ग़ज़ल-
*सागर हो कि वन हो कि नगर, सबके
लिए हो
हो दिल में तेरे प्यार मगर सबके लिए हो*...बहुत अच्छी रचना है।
गिरीश पंकज जी की ग़ज़ल सन्देशपूर्ण है-
*बड़े बन जाओ तुम बड़प्पन साथ में रखना*
दोहों में डॉ. गोपाल बाबू शर्मा जी के दोहे अच्छे बने हैं।
दोहा नम्बर 5 में कटु सत्य उद्बोधित है।
रमेश गौतम जी की कविताएँ बहुत अच्छी हैं।
गौरैया भी/एक घोसला रख ले/इतनी जगह छोड़ना/ महानगर...बेहतरीन
अभिव्यक्ति।
रामेश्वर काम्बोज जी की तीनों कविताएँ बेहतरीन हैं। माँ को तलाश करती आँखें भावपूर्ण हैं।
प्रो0 इंदु पांडेय खंडूड़ी जी की कविता की
पंक्तियाँ बेमिसाल हैं….जितना गहरा है ये समंदर, उससे
भी गहरा है मेरे अंदर...कवयित्री ने उस समंदर को पन्नो पर उतारने की बात कही है
जिससे मुस्कान बिखर सके।
डॉ. कविता भट्ट जी
की कविताएँ… बसंत होली और परीक्षाएँ सब एक ही समय क्यों आती हैं...मेरे भीतर जो
चुप -सी नदी बहती है, वेग नहीं
आवेग है उसमें... कवयित्री के अंतर्मन की सोच की उत्कृष्ट कृतियाँ हैं।
डॉ. कुमुद रामानन्द बंसल जी के ताँका का सुन्दर शब्द विन्यास एवं प्रीति भाव सहज ही
आकर्षित करते हैं। 14 नम्बर का ताँका
बहुत सुंदर है।
डॉ. शिवजी श्रीवास्तव जी
की कविता में माँ, पत्नी, बहन के प्रति चिन्ता
व्यक्त की गई है...एवं दूसरी कविता में गौरैया के गुणों को परख अगले जन्म में
गौरैया के रूप में जन्म लेने की इच्छा व्यक्त की गई है। दोनों कविताएँ बेहतरीन
हैं।
डॉ. शैलजा सक्सेना जी ने सिर्फ़ एक क्षण को ख़ूबसूरती से कविता में ढाला
है...देहरी पर अटका विदा का क्षण। बातों की खर पतवार एवं अनकही बातों की ओस जैसे
बिंबों का प्रयोग सुन्दर है।
प्रो0 संजय अवस्थी जी की कविता अम्मा में माँ
के सादगी- भरे सौंदर्य, मधुर मुस्कान
का सुन्दर वर्णन है। कविता का अंत मार्मिक है जो मन को
आहत कर जाता है।
हरकीरत हीर जी
की कविता, ‘खामोशी का पेड़' दिल को छूने वाली कविता है। यह
उनको समर्पित उपालम्भ है ,जो ममता की मूरत तो हैं पर उनके
द्वारा आँचल में दिया गया खामोशी का पेड़ क्या वाकई खामोश है...नहीं, कई अजन्मी नज्में हैं वहाँ।
डॉ. रत्ना वर्मा जी की दोनो कविताएँ सवाल पूछती हुई कविताएँ हैं। ये वे सवाल हैं जो
अनुत्तरित ही रहेंगे, सदियों तक।
डॉ. कुँवर दिनेश जी की कविता, कल्कि के नाम फैक्स आज
की परिस्थितियो पर चिंता जताती व कल्कि को आगमन के समय सावधान करती सामाजिक सरोकार
की सुन्दर रचना है।
सुदर्शन रत्नाकर जी की बेहतरीन कविता, नारी मुक्ति के द्वार, नारियों की उपलब्धियों को
रेखांकित करने के साथ साथ आत्मद्रष्टा बन स्वयं की रक्षा का आह्वान भी है।
शशि पाधा जी
की दोनों कविताएँ सुन्दर, लयबद्ध एवं भावपूर्ण है। रिश्तों की तुरपाई जहाँ
आपसी सम्बन्धों पर बल दे रही वहीं, मैं तुम्हे पहचान लूँगी,
मन पर छाप छोड़ती प्रेम रस की सुन्दर रचना है।
कमला निखुर्पा जी
की पाँचो कविताएँ अच्छी हैं...विस्मय के संग खड़ी थी जिंदगी , बहुत अच्छी क्षणिका है।
रश्मि शर्मा जी
की कविता, इंसान पेड़ नहीं हो सकता, सत्य
को उद्घाटित करती सुन्दर कविता है। पेड़ों पर नईं कोपलें उग
सकती हैं, पर मानव मन में नए भाव तो आ सकते हैं पर पुराने
भाव सूखे पत्तों की तरह नहीं झर सकते।
डॉ. सुषमा गुप्ता जी की कविताएँ तेरे हिस्से मेरे हिस्से , में हिस्सों के हिसाब बखूबी सोच समझकर लगाए गए हैं। अकाल कविता में मानव
मन की नमी से लेकर बंजर होने तक को क्रम से बताया गया है। सम्वेदनाओं के अकाल को
आपातस्थिति का बिम्ब देकर कवयित्री ने उत्कृष्ट लेखन का परिचय दिया है।
निर्देश निधि जी
की कविता, अलकनन्दा-सी वो, प्रेम रस की
सुन्दर रचना है जो नायक की रागात्मक कल्पना पर आधारित है एवं भाव से परिपूर्ण है।
रचना श्रीवास्तव जी ने माँ के हर गुण को क्षणिकाओं में उतारा है। उनमें क्षणिक 5 बेहद करीब सी लगती है।
प्रियंका गुप्ता जी की रचनाएँ, सराय एवं पासपोर्ट,
गहन रचनाएँ है। सराय में जहाँ उन्होंने परिंदों को उड़ने के लिए आजाद
कर दिया वहीं पासपोर्ट में बचपन की यादों में मन को कैद रखा।
प्रेम गुप्ता मानी जी की कविता, हथेलियों का सौदा,
में वे दादी माँ से कह रहिंन की वे आकर वह सब सही कर दें जिसे करने
में आज की पीढ़ी सफल नहीं हो पा रही।
मीनू खरे जी
की कविता, गीली रेत में पैरों के निशाँ, पढ़ते हुए एक गीत याद आता रहा...न ये चाँद होगा न तारे रहेंगे, मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेंगे...बहुत भावपूर्ण रचना है मीनू जी की।
सुशीला राणा जी
की कविता, चालीस साला औरतें, नारी जीवन
के हर पहलू से परिचय करवाती सुन्दर कविता है। यह रचना मुझे किसी पुरानी कविता की
याद दिला रही जिसके प्रतिउत्तर में यह लिखी गयी थी और
अच्छी तरह लिखी गयी थी।
कृष्णा वर्मा जी
की कविता, मुझसे हो तुम, नारी के महत्व
एवम उसकी क्षमता से परिचय करवाती सुन्दर रचना है।
सुनीता पाहुजा जी
की कविता ,परिवर्तन , में सुन्दर सन्देश
दिए गए हैं। सबसे बड़ा सन्देश कि सदा नए पलों का स्वागत होना चाहिए , चाहे पुराने पलों ने कितने भी घाव दिए हों।
मंजूषा मन जी
की लघु कविताएँ ,जमाना ऐसा है एवं कहाँ गए वो गाँव, भावपूर्ण हैं।
उसके आगे की पृष्ठ पर ऋता शेखर मधु की अर्थात मेरी रचना है जोकि
हरिगीतिका छंद में लिखी गयी सरस्वती वंदना है।
भगत सिंह राणा ‘हिमाद’ जी की रचना, कलिंग युद्ध की विभीषिका, मधुमालती छंद आधारित रचना
है जिसमें युद्ध भूमि का वर्णन है।
डॉ. जेन्नी शबनम जी ने आधुनिकीकरण पर कलम चलाई है। आज की पीढ़ी सुशिक्षित है , वे पुरानी पीढ़ी को देहाती कहती है पर उन्होंने क्या खोया है यह पुरानी
पीढ़ी ही समझ रही।
डॉ.सुरंगमा यादव जी की कविता, सपनों में भरनी है जान,
सन्देशप्रद कविता है। मन से मन का नाता, बेहद
भावपूर्ण कविता है।
भावना सक्सेना जी
की कविता की पंक्तियाँ,मोह नहीं है फिर भी छूटती नहीं पुरानी चीजें,
पाठकों को बिल्कुल उनके दिल की बात लगेगी।
डॉ.आरती स्मित जी
ने लिखा है, माँ जानती है सबकुछ, सचमुच
माँ सबकुछ जानती है तभी आगे की उड़ान के लिए संतति को तैयार करती है। सुन्दर
अभिव्यक्ति है।
कल्पना लालजी जी
की कविता ,जिंदगी मेरी, पन्नों के बिम्ब
को लेकर रची गयी सुन्दर रचना है।मेरी बिटिया, वात्सल्य भाव
से ओत प्रोत भावपूर्ण सृजन है।
डॉ. पूर्वा शर्मा जी की कविता, परफ़ेक्ट…, उन सबके दिल की बात है जो सबकी आकांक्षाओं को पूरा करते करते अपनी
आकांक्षा भूल जाया करते हैं। अब मैं तुम्हें याद नहीं करती, प्रेम
की भावपूर्ण अभिव्यक्ति है।
सत्या शर्मा कीर्ति जी ने कोरोना काल में जो वापस घर को लौटे और अपनो के बीच भी
बेगाना महसूस करते रहे, पर मार्मिक अभिव्यक्ति दी है।
शिवानन्द सहयोगी जी का अपना दर्द स्वयं सुनाना चाहते हैं और उन्होंने लिखा है, कोयल रह तू मौन। खत लिखते रहना, भावपूर्ण सन्देश है
उनके लिए जो गाँव की आबो हवा छोड़कर शहर की ओर जा रहे।
अनिता ललित जी
के दोहे जीवन की सच्चाइयों के रु ब रु करवाते सुन्दर हैं।
अनिता मण्डा जी ने कविता की ऊँचाइयों को छुआ है। दुनिया जिसे पागल लड़की समझती
उसकी डायरी में जाने कितने मर्म छुपे थे।
ये किस्मत है कि मुरझाई नहीं मैं, जमीन
को जब मेरी बदला गया था। गज़ल की ये पंक्तियाँ हैं -ऋतु कौशिक जी की। उनकी तीनों ग़जलें बेहतरीन हैं।
भीगी पलकों के साये में, यह कविता सीमा
सिंघल सदा जी की है जिसमें वे पिता को याद करती हुई भावुक हुई हैं।
ज्योत्स्ना प्रदीप जी के माहिया सुन्दर हैं। प्रभु को विषय बनाकर रची गयी गीतिका
मनभावन है।
रश्मि विभा त्रिपाठी रिशु जी की कविता ,वक़्त ,में वक्त की रफ्तार से कदम मिलाने का संकल्प है।
डॉ. महिमा श्रीवास्तव जी
की कविता, भूल न पाओगे, भावपूर्ण
अभिव्यक्ति है।
प्रीति अग्रवाल जी
ने कविता, आईना, में स्वयं को अपनी माँ
के रूप में देखकर भावविभोर हो गईं।
पूनम सैनी जी
की लघु कविताएँ विभिन्न भाव को समेटे सुन्दर कृतियां हैं। अंतिम लघु कविता जीवन
दर्शन को समेटे सुन्दर अभिव्यक्ति है।
मुकेश बेनीवाल जी
की लघु कविताएँ उनके आत्मविश्वास का परिचय देती हैं। हकीकत हूँ मैं, कोई कहानी नहीं...बहुत अच्छी रचना है।
संजीव द्विवेदी जी
की कविता में सामाजिक विसंगतियों के प्रति क्षोभ परिलक्षित होता है साथ ही
संवेदनशीलता है कि, हम कैसे पर्व मनाएं ।
प्रभात पुरोहित जी
की कविता नव वर्ष के लिए है एवं डॉ. विजय
प्रकाश जी की कविताएँ सकारात्मक हैं।
सच झूठ में जब छिड़ी जंग है, खड़ा है कहाँ
तू पता तो चले… ये गज़ल की पंक्तियाँ हैं जिसके रचयिता हैं जयवर्द्धन कांडपाल जय
जी। उनकी दोनों गजलें बेहतरीन हैं।
ज्योति नाम देव जी
की कविता, तू मानवी है-अखंडित, नारियों
को उनकी शक्ति एवम सामर्थ्य का अहसास कराती सुन्दर प्रेरणात्मक सृजन है।
साइनी कृष्ण उनियाल जी की कविता, माँ का साया, व स्वाति शर्मा
जी की कविता, कहाँ है तू रब्बा, सुन्दर
रचनाएँ हैं।
अनमोल है तू माँ बोल मैं क्या दूँ...सन्ध्या झा जी की कविता ,माँ, की ये खूबसूरत पंक्ति है।
उपासना उनियाल जी की कविता, मोसुल की लड़कियाँ, बेहद मार्मिक रचना है। समाज के
काले पक्ष को उजागर करती उनकी कविता मन को आहत करती
है।
मेघा राठी जी
की गजल अच्छी है।
भारती जोशी जी की कविता में सबको साथ मिलकर चलने की बात कही गयी है
एवं प्रेरणादायी है।
खुशी रहेजा जी
की कविता, जाने कौन थी वो, काव्य से
भरपूर रचना है।
शशि काण्डपाल जी की कविता में बाग की हर कली की रक्षा
का संकल्प है ।
अनिता काला जी
की रचना, सीता परित्याग, खण्ड काव्य
की तरह है जिसमें सीता की व्यथा, लव कुश का जन्म और फिर सीता
का पृथ्वी के गर्भ में समा जाने का वर्णन है। सुन्दर अभिव्यक्ति है।
शशि देवली जी
की कविताएँ, मेंहदी ,और ,गठरी ,हैं। गठरी मन की है जो रुआँसी है, पर कागज कलम का साथ पाते ही खुल जाती है और मुस्कान बिखेरती है।
नीलम्बरा के
बाद के पृष्ठों पर आदरणीय रामेश्वर काम्बोज जी की प्रकाशित पुस्तकों की सूची है और उसके आगे मासिक पत्रिका उदंती के कुछ चित्र लगाए गए हैं।
सुन्दर संचयन और आतंरिक साज-सज्जा और संयोजन के लिए मैं हृदयतल से कविता भट्ट जी और डॉ रत्ना वर्मा को बधाई प्रेषित
करती हूँ तथा आगे के अंकों के लिए हार्दिक शुभकामनाएं देती हूँ।
ऋता शेखर मधु
सोमवार, 11 जनवरी 2021
नीलाम्बराः संवाद
डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
विश्व हिन्दी दिवस पर नीलाम्बरा की विशेष प्रस्तुति- नीलाम्बरा -संवाद
रविवार, 3 जनवरी 2021
शुक्रवार, 1 जनवरी 2021
180-तीन कविताएँ
1-डॉ. कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’
1
उसके पास रोटी थी,
किन्तु भूख नहीं थी।
मेरे पास भूख तो थी,
किन्तु रोटी नहीं थी।
खपा वह भूख के लिए,
मिटा मैं रोटी के लिए।
भूख-रोटी दो विषयों पर,
बीत गए युग व युगान्तर।
संघर्ष रुका नहीं अब भी,
समय तो धृतराष्ट्र था ही।
किन्तु; प्रश्न तो यह है भारी
इतिहास क्यों बना गान्धारी ?
2
प्यास और पानी के बीच; है जो फासला-
यही है जिजीविषा- जीने का सिलसिला।
भूख से रोटी की दूरी तय करने में अक्सर-
व्यक्ति तय कर लेता है पीढ़ियों का सफ़र।
वह भटकता है गाँव से नगर औ महानगर;
प्यास-भूख भीरु को भी बना देती; निडर।
माप सकता है वह कई लोकों को डग भर-
वामन के जैसे ही नन्हे; किन्तु दृढ़ पग-धर।
प्रसंग में न वामन है; न ही बली की मज़बूरी;
है केवल प्यास-भूख से पानी-रोटी की दूरी।
-0-
2-मंजूषा मन
1- ज़माना ऐसा है
सच को
कारागार मिले
और झूठों को सम्मान...
ज़माना ऐसा
है
जिसने बदले
खूब मुखोटे
उसकी ही पहचान...
ज़माना ऐसा
है
छाँव सभी
कैदी महलों की
अपने हिस्से धूप,
हम मिट्टी के
टूटे बर्तन
वह सोने का रूप।
जीवन जीने
की कोशिश में
जान हुई हलकान...
ज़माना ऐसा
है
उजड़ी फसलें
लुटे द्वार घर
सभी कुछ हुआ स्वाह,
अपना दुखड़ा
किसे सुनाएं
पाएं कहाँ पनाह।
ऊपर बैठे थे
बंदर तो
बंटे सभी अनुदान...
ज़माना ऐसा
है