1-डॉ. कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’
1
उसके पास रोटी थी,
किन्तु भूख नहीं थी।
मेरे पास भूख तो थी,
किन्तु रोटी नहीं थी।
खपा वह भूख के लिए,
मिटा मैं रोटी के लिए।
भूख-रोटी दो विषयों पर,
बीत गए युग व युगान्तर।
संघर्ष रुका नहीं अब भी,
समय तो धृतराष्ट्र था ही।
किन्तु; प्रश्न तो यह है भारी
इतिहास क्यों बना गान्धारी ?
2
प्यास और पानी के बीच; है जो फासला-
यही है जिजीविषा- जीने का सिलसिला।
भूख से रोटी की दूरी तय करने में अक्सर-
व्यक्ति तय कर लेता है पीढ़ियों का सफ़र।
वह भटकता है गाँव से नगर औ महानगर;
प्यास-भूख भीरु को भी बना देती; निडर।
माप सकता है वह कई लोकों को डग भर-
वामन के जैसे ही नन्हे; किन्तु दृढ़ पग-धर।
प्रसंग में न वामन है; न ही बली की मज़बूरी;
है केवल प्यास-भूख से पानी-रोटी की दूरी।
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2-मंजूषा मन
1- ज़माना ऐसा है
सच को
कारागार मिले
और झूठों को सम्मान...
ज़माना ऐसा
है
जिसने बदले
खूब मुखोटे
उसकी ही पहचान...
ज़माना ऐसा
है
छाँव सभी
कैदी महलों की
अपने हिस्से धूप,
हम मिट्टी के
टूटे बर्तन
वह सोने का रूप।
जीवन जीने
की कोशिश में
जान हुई हलकान...
ज़माना ऐसा
है
उजड़ी फसलें
लुटे द्वार घर
सभी कुछ हुआ स्वाह,
अपना दुखड़ा
किसे सुनाएं
पाएं कहाँ पनाह।
ऊपर बैठे थे
बंदर तो
बंटे सभी अनुदान...
ज़माना ऐसा
है
सच को बयाँ करती सशक्त रचनाएँ ....
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण सृजन के लिए कविता जी एवं मंजूषा जी को हार्दिक शुभकामनाएँ
सत्य को खोलती सुन्दर रचनाएँ हैं
जवाब देंहटाएंपुष्पा मेहरा
बहुत सुंदर रचना
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