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रविवार, 13 सितंबर 2020

167-स्त्री और पुरुष

-डॉ. संजय अवस्थी

 मैं स्त्री हूँ, प्रकृति हूँ।

तुम पुरुष, सदैव ठगते रहे,

जैसे मैं ठगने के लिए ही बनी हूँ।

लोग कहते हैं-

हमारा मिलन,हमें पूर्ण बनाता है,

पर इस सत्य को ,

तुम ही क्यों झुठलाते रहे।

जन्म पर, तुम्हारे माथे की सलवटें,

माँ बतलाती थी,

फिर भी,थी मैं पहली:

इसलिए पिता बन

सब भूल, कैसे दुलराते रहे।

पर क्यों बड़ी होने पर,

मेरी नज़रों पर भी पहरा?

भाई, तू बाद में आया,

मैं फूली नहीं समाती थी,

बहन बन कैसे इतराती थी

खुद नन्ही, फिर भी तुम्हें गोद,

में लिये,दम न फुलाती थी।

मेरा बचपन, मेरा खेल,

न्योछावर, तुम्हारे स्नेह में।

पर अब बड़े होकर, क्यों

मेरे आँचल पर पहरा बिठाते हो

पिता के लिए बोझ, भाई का भय,

बोध हुआ मुझे, मैं जवान हो गई।

मैं लड़की हूँ, सदा ठगे जाने के लिए

कभी माँ के रूप में

कभी बहन बनकर।

मैं सदैव, तुममें स्नेह सुरक्षा ढूँढती रही,

तुम पुरुष, सदैव ठगते रहे ।

प्रेयसी बन, तुम्हारी बॉहों में

सर्वस्व समर्पित किया।

तुम पुरुष, वहाँ भी मुझे जिस्म समझ,

मुझमें वासना टटोलते रहे।

मेरी स्वतंत्रता, तुम्हारा अवसर,

तुम्हारी आँखें, द्रौपदी बनाती रही।

मैं भी जीना चाहती हूँ,

दूर दिगंत तक उड़ना चाहती हूँ,

पर तुम मेरी आत्मा को झुठलाकर,

मुझे भोग्या बना ठगते रहे।

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6 टिप्‍पणियां:

  1. स्त्री की पीड़ा पर बहुत सुन्दर रचना आद.डा.संजय अवस्थी जी... हार्दिक बधाई आपको !

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  2. नारी तुम केवल श्रद्धा हो | जग के पुरुषों ने जो भी स्थान दिया यह उनकी क्रूरता है ;निष्ठुरता है और कायरता है | सीता जैसी पवित्र नारी जिस पर इंसानों ने दोष लगाया | तुमने इस कविता के माध्यम से जो बात कही -सत्य कही - इसमें एक दिलेरी है ,भावुकता है ;करुणा है | हृदय को स्पर्श करने वाली है और समाज को जाग्रत करने वाली है | कविता !तुम्हारी कलम में एक नवीनता है ,पीड़ा है और पाषणों को पिघ्लानेवाली है | शुभकामा के श्याम हिन्दी चेतना

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  3. स्त्री की वेदनाओं का डॉ संजय जी ने अपनी कविता में सुन्दर चित्रण किया है हार्दिक बधाई |

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  4. ह्रदय से आभार आदरणीय सविता जी।

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  5. अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी को सार्थक करती रचना

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