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मंगलवार, 7 जुलाई 2020

कोरोना महामारी में मृत्यु से अमरता की ओर ...


कविता भट्ट 'शैलपुत्री

कोरोना पेंडमिक की इस त्रासदी में , उन लोगों ने  भी भारतीय संस्कृति के एक छोटे से अभिवादन
की अभिव्यक्ति के शब्द; नमस्कार को अपनाया , जो हमारी संस्कृति को पिछड़ी और आउट डेटेड कहकर हमारा मजाक उड़ाते रहते थे। स्वर्ण कीचड़ में हो या अपने परिष्कृत रूप में उसका मूल्य नहीं बदलता ,यही हाल हमारी गौरवशाली सनातन भारतीय संस्कृति का भी है ।

संस्कृति' शब्द संस्कृत भाषा की धातु 'कृ' (करना) से बना है। इस धातु से 3 शब्द बनते हैं-  'प्रकृति' (मूल स्थिति), 'संस्कृति' (परिष्कृत स्थिति) और 'विकृति' (अवनति स्थिति)। 

'संस्कृतिका शब्दार्थ है- उत्तम या सुधरी हुई स्थिति ;यानी कि किसी वस्तु को यहां तक संस्कारित और  परिष्कृत करना कि इसका अंतिम उत्पाद हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके। सामान्य अर्थ में आधिभौतिक संस्कृति को संस्कृति और भौतिक संस्कृति को सभ्यता के नाम  से अभिहित किया जाता है। संस्कृति के ये दोनों पक्ष एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। संस्कृति  आभ्यंतर है, इसमें परंपरागत चिंतन, कलात्मक अनुभूति, विस्तृत ज्ञान एवं धार्मिक आस्था का  समावेश होता है। यदि इसे और सरलतम शब्दों में  अनुवादित किया जाए, तो जो बिगड़े को परिष्कृत(सुधार) करके अच्छे में बदल दे ;वही संस्कृति है ।

हमारा धर्म चार वेद स्तम्भों पर आधारित है । जिन्हें आज की पीढ़ी को ये बताकर पढ़ने से रोक दिया जाता है ,कि ये बस पूजा पाठ करने की किताबें हैं । इनको मात्र किताबें ...... ग्रंथ तक कहने में इन्हें शर्म आती है ,शायद हम यह भूल जाते है कि कभी इन पूजा पाठ की किताबों से ही संस्कृति सभ्यता और हमारे अपने सनातन हिन्दू धर्म, और हिन्दू होने की प्रमाणिकता सिद्ध होती है। 

वेदों के चार भाग हैं -  ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग-स्थिति, यजु-रूपांतरण, साम-गति‍शील और अथर्व-जड़। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्ही के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई। ये आपको हर जगह मिल जाएगा ,अब कुछ अलग-अलग जानते हैं, शुरुआत करते हैं ऋग्वेद से । 

ऋग्वेद का उपवेद ( शाखा ) है ;आयुर्वेद ......

आयुर्वेद को लोग आजकल जड़ी बूटी वाला इलाज मानकर इसको न सुनने को तैयार हैं न पढ़ने को ।  आयुर्वेद का एक ग्रन्थ है; वृहत्त्रयी, जो चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता और अष्टाङ्गहृदयम् ग्रंथो को मिलाकर बना है । आज हम बस अष्टाङ्गहृदयम् की बात करेंगे, जो वाग्भट्ट जी द्वारा रचित है।  अष्टांगहृदय में आयुर्वेद के सम्पूर्ण विषय- काया , शल्य, शालाक्य आदि आठों अंगों का वर्णन है ।

अष्टांगहृदय में 6 खण्ड, 120 अध्याय एवं कुल 7120 श्लोक हैं। अष्टांगहृदय के छः खण्डों के नाम निम्नलिखित हैं-

1) सूत्रस्थान ( 30 अध्याय )
2) शरीरस्थान (6अध्याय)
3) निदानस्थान (16 अध्याय)
4) चिकित्सास्थान (22 अध्याय)
5) कल्पस्थान (6 अध्याय)
6) उत्तरस्थान (40 अध्याय)

इसमें से सूत्रस्थान में दिनचर्या, रात्रिचर्या, ऋतुचर्या, का वर्णन है। दिनचर्या से तात्पर्य आहार, विहार और आचरण के नियमों से है।
यहाँ तक कि नियमित क्या दिनचर्या होनी चाहिए ,इसके बारे में तक 11 अध्याय हैं । जिनका यदि पालन किया जाए ,तो कोई भी बीमारी हमे हो ही नहीं सकती है ।

1) प्रातःउत्थान ,2) मलोत्सर्ग ,3) दन्तधावन, 4) नस्य ,5) गण्डूष (मुँहधावन क्रिया/कुल्ले करना), 6) अभ्यंग (तैल मालिस) , 7) व्यायाम, 8) स्नान,  9) भोजन , 10) सद्वृत्त,  11) निद्रा (शयन)। 

वैज्ञानिक पुष्टि की बात की जय तो जेफरी सी हॉल, माइकल रोसबाश और माइकल डब्ल्यू यंग को चिकित्सा के क्षेत्र में योगदान के लिए साल 2017 में नोबेल पुरस्कार के सम्मानित किया गया है । इन तीनों को बॉडी क्लॉक पर रिसर्च करने के लिए इस अवॉर्ड से सम्मानित किया गया है। दरअसल, बॉडी क्लॉक से हमारे शरीर की जैविक क्रियाओं का पता चलता है । जीव-जंतुओं सहित सभी जीवित प्राणियों के भीतर शारीरिक प्रक्रियाओं में चलने वाला 24 घंटे का चक्र होता है, यह आपके जगने-सोने के समय, हार्मोन के स्राव, शरीर के तापमान सहित विभिन्न शारीरिक प्रकियाओं को नियंत्रित करता है।

इसे मेडिकल की भाषा में 'शरीर घड़ी' या 'जैवलय', 'जैविक घड़ी' कहते हैं, अंग्रेजी में इसे 'body clock', circadian rhythms, Biological rhythms या Biological rhythms कहते हैं । बॉडी क्लाॅक के गड़बड़ होने पर न केवल प्रतिरोधक क्षमता प्रभावित होती है, बल्क‍ि इससे सोचने-समझने और फैसले लेने की क्षमता पर भी असर होता है । यदि हम नियमित दिनचर्या को फॉलो करें तो न केवल अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा सकते है बल्कि खुद को कई बीमारियों से बचा सकते हैं ।

विशेषत: धर्म का अर्थ है धारण करना ,और संस्कृति ; किसी भी सभ्यता का आधारभूत तत्व। सभ्यता के दीर्घकालिक अस्तित्व के लिए ,धर्म और संस्कृति का संयोजन अनिवार्य है। और जब संस्कृति को ही धर्म के रूप में अपना लिया जाता ,तो विकास के लिए अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता नहीं होती। अपितु वो हमारे दैनिक कार्यकलापों से ही परिणीति पाता। संस्कृति को ही यदि धर्म के रूप में अपना लिया जाता ,तो ये विशुद्ध प्राकृतिक रूप होता। हम प्रकृति के अनुरूप ढल कर उसका हिस्सा होते। तब धर्म की परिकल्पना अपने विस्तृत रूप में साकार होती- सर्व कल्याणकारी ,लोकोपकारी...
अपनी जड़ों में लौटिए ,उसके अनुरूप आचरण करिये ,ताकि आने वाले वक्त में मानव विलुप्त प्रजाति की श्रेणी में आने के खतरे से बचा रहे।
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