डॉ.कविता भट्ट
पगडंडियों से उतरती हवा
सूरज निकलते ही
कभी खुलता था
पहाड़ी की ओर
जो बन्द दरवाज़ा
साथी दरवाजे से
सिसकते हुए बोला-
बन्धु! सुनो तो क्या
है अनुमान तुम्हारा
हमें फिर से क्या
कोई आकर खोलेगा
घर की दीवारों से
क्या अब कोई बोलेगा
इस पर कई वर्षों से
बन्द पड़ी एक खिड़की
अपनी सखी खिड़की की
सूनी आँखों में झाँककर
अँधेरे में सुबकती रोने लगी-
इतने में भोर होने लगी
दरवाजे भी चुपचाप हैं
खिड़कियाँ भी हैं उदास
खुलने की नहीं बची आस
मगर सच कहूँ? न जाने क्यों
इन
सबको है हवा पर विश्वास
लगता है; सुनेगी सिसकियाँ
पलटेगी रुख शायद अब
पहाड़ी की ओर फिर से
खुलेगा- बन्द पड़ा दरवाजा
चरमराहट के संगीत पर
झूमेंगी फिर से खिड़कियाँ
घाटी में गूँजेंगी स्वर -लहरियाँ
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बहुत गहरी संवेदना की कविता । अतीत का उजाला वर्तमान का सूनापन और भविष्य की आशा , तीनों चित्र बहुत गहरे हैं। पूरी कविता मानस पर फ़िल्म की तरह उभरती है। दरवाज़े वातायन , सूरज और हवा के साथ गहरी अभिव्यक्ति।बिम्बविधान बहुत सशक्त ।
जवाब देंहटाएंसचमुच ‘जड़ ‘ के मर्म को पहचानना ही संवेदनशीलता है । बहुत सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंआप दोनों आत्मीय जनों का आभार
जवाब देंहटाएंबहुत ही संवेदनशील रचना
जवाब देंहटाएंआपकी सृजशीलता को नमन
हृदयस्पर्शी रचना कविता जी ..हार्दिक बधाई🌷🌷🌷🙏🙏
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन कविता जी हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंसार्थक सृजन के लिये दिली बधाई लो ।स्नेह ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर , भावप्रवण रचना , हार्दिक बधाई कविता जी !
जवाब देंहटाएंकविता जी सुन्दर भावों और चित्रों के साथ सजी कविता जड़ के भावनाओ को व्यक्त करती बहुत सुन्दर बन पड़ी है ।हार्दिक बधाई ।
जवाब देंहटाएंआप सभी आत्मीय जनों को हार्दिक धन्यवाद, भविष्य में भी आशीर्वाद बनाये राखिएगा
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण रचना...मेरी बधाई स्वीकारें...|
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार, प्रियंका जी
हटाएंहार्दिक आभार प्रियंका जी
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