अनेक साहित्यिक संस्थानों के संरक्षक, संस्थापक तथा विविध पुरस्कारों से सम्मानित उत्कृष्ट उपन्यासकर-कथाकार विधिवेत्ता श्री महेंद्र भीष्म द्वारा लिखित लोकप्रिय उपन्यास ‘किन्नर कथा’ पढने का
सुअवसर प्राप्त हुआ। पढ़ने के पश्चात् उसकी मुख्य विषय वस्तु मन में गहनता से अंकित हो गई। ऐसा प्रतीत होता है की संवेदनशील लेखक ने किन्नरों की विविध पीड़ाओं को अत्यंत निकट से दृष्टिगत करके तथा अध्ययन के उपरांत शब्द चित्र खींच दिए हों। परिणामतः यह उपन्यास पाठक के मन किन्नरों की असीम पीड़ा को अनुभव करते हुए झकझोर कर रख देने की क्षमता रखता है। वस्तुतः लेखक उपन्यास के प्रारंभ से अंत तक पाठक को भावों की सरिता में विप्लावित करने की क्षमता के परिपूर्ण हैं। इस क्षमता के साथ ही वे किन्नरों की समस्याओं को भी अद्भुत शब्द-चितेरे के रूप में चित्रित करते चले जाते हैं।
‘पुरुषों वाव सुकृतं’ अर्थात् मनुष्य योनि परमात्मा या प्रकृति की सर्वोत्तम रचना है। शेष सभी भोग योनियाँ हैं; मात्र मानव देह में ही जीव प्रारब्ध कर्मों को भोगते हुए; भविष्यकालीन जन्मों को सुधारने की क्षमता रखता है; परन्तु सुन्दरतम रचना तब ही कही जाएगी; जब वह पूर्ण हो। जबकि ईश्वर की अपूर्ण रचना अर्थात् किन्नर या हिजड़ा क्या ईश्वर की सर्जनक्षमता पर प्रश्न नहीं उठाता?
उपर्युक्त प्रश्नों के ही समान न जाने कितने प्रश्नों से पाठक की बुद्धि का उद्दीपन करते हुए लेखक किन्नर समाज की अनेक ज्वलंत समस्याओं का चित्रण करते हुए सम्बन्धित समाधान भी प्रस्तुत करते चले जाते हैं। मैं ऐसा मानती हूँ कि यदि दार्शनिक दृष्टि से विचार करें ,तो सामान्य रूप से मानव की व्यथाएँ तद्जनित हैं, या यह कहा जा सकता है कि इनमे से अधिकांश व्यथाओं के केंद्र में भोगवाद और असंतुष्टि है। कारण है- असीम इच्छाएँ; किन्तु मानव जाति का एक वर्ग ऐसा भी है जिसकी पीडाएँ तद्जनित नहीं, अपितु किसी क्रूर परिहास का परिणाम है। क्रूर परिहास कर्त्ता को प्रकृति या ईश्वर आदि; जिस किसी संज्ञा से अभिहित किया जाय; किन्तु भोक्ता एक ही है; और वह है किन्नर शरीरधारी। किन्नर जिन्हें थर्ड जेंडर और जनसामान्य में हिजड़ा कहकर सम्बोधित किया जाता है। मानव समाज तथाकथिक चरम विकास के युग में प्रवेश करके स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहा है, किन्तु समाज का किन्नर वर्ग अभी भी इस मुख्यधारा से नहीं जुड़ सका है, कारण अनेक हैं, किन्तु मूल कारण हैं जनसामान्य की इस वर्गविशेष के प्रति हेय मानसिक अवधारणा। इस अवधारणा का चित्रण लेखक ने विषय के मूल में रखे गए एक चरित्र सोना उर्फ़ चंदा के माध्यम से किया है; जो अत्यंत सुन्दर है और मात्र उसकी कंठध्वनि ही उसके किन्नर होने को प्रमाणित करती है; अन्यथा वह कहीं से भी किन्नर प्रतीत नहीं होती। सोना की किन्नर देह के कारण राजघराने में जन्म लेने के उपरांत भी वह बहुत ही हेय जीवन जीने को विवश होती है। वस्तुतः जन्म के समय इसका नाम सोना रखा गया था और इसकी एक और जुड़वाँ बहिन भी थी। सोना के पिता ने लोकलाज के कारण उसकी हत्या का कार्य अपने दीवान को सौंप दिया; किन्तु उसने दया-विभोर होकर सोना को तारा नामक किन्नर गुरु को सौंप दिया। इसके उपरांत सोना का नाम चंदा रख दिया जाता है। वही चंदा संयोगवश पंद्रह वर्ष के पश्चात् अपनी जुड़वाँ बहिन के विवाह में पहुँचती है।
कथानक में यदि भाव पक्ष की बात की जाय तो अधूरी देह होने की पीड़ा, सामाजिक उपेक्षा, पारम्परिक एवं पारस्परिक संघर्ष, अवसाद तथा विद्वेष आदि जैसे नकारात्मक भावों को दर्शाते हुए लेखक किन्नर समाज की पीड़ा को चित्रित करने में उत्कृष्ट लेखनी का परिचय देते हैं। केवल नकारात्मक ही नहीं सकारात्मक दृष्टि से भी लेखक किन्नर मन के भावो को चित्रित करने में सफल रहे हैं। वे चंदा के जीवन में आये प्रतिष्ठित परिवार के एक पुरुष मनीष के माध्यम से प्लुटोनिक लव या आध्यात्मिक प्रेम को भावों की पराकाष्ठा तक चित्रित करते हैं। प्रेम के विविध पक्षों यथा- हर्ष, रोमांच, विह्वलता, करुणा, आदर्श, समर्पण तथा व्यक्तिगत एवं सामाजिक उथल-पुथल आदि को बड़ी ही सुन्दरता के साथ प्रस्तुत किया है।
कला पक्ष की दृष्टि से उपन्यास की भाषा शैली, रूपरेखा एवं विषय-वस्तु की बात की जाय तो अधिकांशतः तत्सम शब्दों से सुसज्जित और प्रवाह से युक्त है। रूपरेखा सुनियोजित एवं सुसंगठित है। विषय-वस्तु प्रासंगिक एवं ज्वलंत मुद्दों से युक्त है और बारम्बार पढ़ने की रुचि जगाता है। समाज में किन्नरों की स्थिति को सुधारने के लिए यह प्रकाश स्तम्भ का कार्य करेगा और साहित्यिक सुधिजनो के मध्य साहित्यिक-बौद्धिक अभिरुचि उत्पन्न करने वाला मील का पत्थर सिद्ध होगा।
साररूप में कहा जाय तो यह उपन्यास पढ़ना साहित्यिक रसास्वादन के साथ ही एक अनूठा सामाजिक शिलालेख भी प्रस्तुत करता है। इसे पढ़ना अत्यंत उत्तम अनुभव सिद्ध होता है।
किन्नर कथा (उपन्यास) : महेंद्र भीष्म, पृष्ठ- 192, मूल्य रु०150, ISBN 978-93-80458-29-8, प्रथम संस्करण 2014, प्रकाशक- सामयिक बुक्स, 3320-21, जटवाडा, दरियागंज, एन.एस.मार्ग नयी दिल्ली- 110002
-0--हे न ब गढ़वाल विश्वविद्यालय , श्रीनगर गढ़वाल,उत्तराखंड
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