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रविवार, 26 नवंबर 2017

सशक्त लघुकथाएँ

डॉ.कविता भट्ट

   लघुकथा मात्र मनोरंजन की साहित्यिक विधा नहीं, अपितु सशक्त सामाजिक सन्देश के धागे में गूँथी हुईसमाज के रंग-बिरंगे मनकों से युक्त माला कही जा सकती है; जो आत्मरंजन का श्रेष्ठ माध्यम भी है। आजकल साहित्य की अनेक विधाएँ पाठकों के समय तथा पढ़ने की आदत की कमी के कारण निरंतर मुख्य धारा से विलुप्त होती जा रही हैं। वर्तमान परिस्थितियों में लघुकथा अत्यधिक उपयोगी विधा इसलिए है; क्योंकि यह सीमित शब्दों में अत्यंत संवेदनशील एवं सारगर्भित तथ्यों को रोचक एवं सरल ढंग
से प्रस्तुत करने का सशक्त माध्यम है। आधुनिक तीव्रगामी वातावरण में कम समय होते हुए भी पाठक लघुकथा के माध्यम से आत्मरंजन के साथ ही अत्यंत प्रासंगिक एवं समकालीन विषयों को समझ सकता है।लघुकथा मात्र मनोरंजन की साहित्यिक विधा नहीं, अपितु सशक्त सामाजिक सन्देश के धागे में गूँथी हुई 
समाज के रंग-बिरंगे मनकों से युक्त माला कही जा सकती है; जो आत्मरंजन का श्रेष्ठ माध्यम भी है। आजकल साहित्य की अनेक विधाएँ पाठकों के समय तथा पढ़ने की आदत की कमी के कारण निरंतर मुख्य धारा से विलुप्त होती जा रही हैं। वर्तमान परिस्थितियों में लघुकथा अत्यधिक उपयोगी विधा इसलिए है; क्योंकि यह सीमित शब्दों में अत्यंत संवेदनशील एवं सारगर्भित तथ्यों को रोचक एवं सरल ढंग से प्रस्तुत करने का सशक्त माध्यम है। आधुनिक तीव्रगामी वातावरण में कम समय होते हुए भी पाठक लघुकथा के माध्यम से आत्मरंजन के साथ ही अत्यंत प्रासंगिक एवं समकालीन विषयों को समझ सकता है।
वस्तुतः लघुकथा केवल विषयों को प्रस्तुत ही नहीं करती ;अपितु अपने आप में इतनी परिपूर्ण होती है; कि यदि पाठक संवेदनशील है ,तो छोटी सी विषयवस्तु में ही गंभीर से गंभीर समस्याओं का समाधान भी खोज लेता है। लघुकथा किसी भी विषयवस्तु पर हो; इतना निश्चित है कि यह विषय का गंभीर दार्शनिक चिंतन प्रस्तुत करती है। सौभाग्य से मुझे इस विधा में अनेक विषयवस्तुओं पर पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। अनेक लघुकथाएँ ऐसी हैं कि अपनी अंतिम पंक्ति तक आते-आते एक ज्वलंत समस्या के प्रति विचारों के साथ ही मन में आक्रोश भी स्फुरित कर गईं।
ऐसी ही एक लघुकथा है- श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘धर्म-निरपेक्ष’। यह लघुकथा कुतूहल एवं रोमांच से प्रारंभ होकर एक ज्वलंत एवं चिंतनीय समकालीन मुद्दे पर जाकर समाप्त होती है। मुद्दा ऐसा की जिस पर अनेकानेक ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। यह लघुकथा मन और मष्तिष्क दोनों को छूने के साथ ही गहरे से पैठ भी बना गयी। तटस्थ दृष्टिकोण अपनाते हुए; कथा की जितनी भी प्रशंशा की जाय कम ही है।
प्राचीन समय से धर्म मानव समाज हेतु दिग्दर्शन का हेतु एवं जीवन पद्धति के रूप में प्रतिष्ठित था; आधुनिक युग में वही मानव समाज की सबसे बड़ी त्रासदी का हेतु बन गया है।  भारतवर्ष की स्थिति इस पक्ष पर चिंताजनक इसलिए है; क्योंकि धर्म, जाति एवं संप्रदाय के नाम पर बनता हुआ यहाँ का समाज धर्मनिरपेक्षता की बात सिद्धांतत: मानते हुए भी व्यवहारिक धरातल पर अभी भी व्यर्थ के रक्तपात एवं राजनीतिक संघर्ष में ही उलझा हुआ है। इस कारण यहाँ का समाज वास्तविक उत्त्थान पर केन्द्रित नहीं हो पता। इसी धार्मिक एवं सम्प्रदायगत रक्तपात को आधार बनाकर  श्री काम्बोज की यह मार्मिक एवं सारगर्भित लघुकथा मानव समाज का धर्मान्धता वाला पक्ष प्रस्तुत करने के साथ ही अंतत: एक गहन शिक्षा भी प्रस्तुत करती है। कथाकार अपनी बात को कहने में पूर्ण से भी आगे निकल आये; क्योकि धर्म कौतूहल अंत में मानव के धार्मिक रक्तपात वाले कृत्य पर घृणा में परिवर्तित हो जाता है। जब धर्म के नाम पर लड़ते हुए दो आक्रामक व्यक्तियों के चाकू से हुए संघर्ष में दोनों सड़क पर लुढ़क जाते हैं तथा एक कुत्ता ,जो हड्डी को चबा रहा है; हड्डी छोड़ कर जब मांस की लालसा में उन व्यक्तियों को नोंचने के लिए आगे बढ़ता है; उन्हेंहे गोश्त के रूप में नोंचने के स्थान पर वह कुत्ता उनके उपर मूत्र विसर्जन कर देता है। इस प्रकार लेखक बहुत कम शब्दों में बड़ी पटुता के साथ पाठक को यथोचित सन्देश देने में शत- प्रतिशत सफल रहे हैं। साथ ही निश्चित रूप से ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक मात्र सिद्धांत में ही नहीं व्यवहार में भी मानवतावादी संवेदनशील हृदय रखते हैं; क्योंकि व्यक्ति साहित्यकार होने के साथ ही जब एक अच्छा दृष्टिकोण रखता हो और एक अच्छा व्यक्ति हो तभी वह ऐसी रचना को लिपिबद्ध कर सकता है अन्यथा नहीं।
धर्म में नाम पर लड़ने वाले लोग पशु से भी तुच्छ हैं; ऐसा सन्देश देने में लेखक पूर्णत: सफल रहे हैं। अंत में लेखक की इस कथा के सम्बन्ध में जो सन्देश प्रस्तुत होता है वह उपनिषद दर्शन के उस श्लोक से सम्बन्ध रखता है जिसमें कहा गया-
अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
अर्थात ये तेरा है, ये मेरा है; ऐसी गणना संकुचित मानसिकता के लोग करते है; उदार चरित्र वाले लोग तो सम्पूर्ण विश्व को कुटुंब के समान समझते है। यद्यपि इस प्रकार के विचारों से प्राचीन भारतीय वांग्मय संपन्न है; तथापि वर्तमान परिस्थितियों में यह विचार थोड़ा कमजोर पड़ गया है। इस दृष्टि से ‘धर्म निरपेक्ष’ शीर्षक से यह लघुकथा अत्यंत प्रभावी एवं समकालीन परिदृश्य में प्रासंगिक भी है; क्योंकि धर्म के नाम पर होने वाले रक्तपात को जब तक नहीं रोका जायेगा; मानव समाज का वास्तविक उत्थान संभव नहीं है।
लघुकथाओं की इस शृंखला में मेरी पसंद की अनेक और भी रचनाएँ हैं, किन्तु समकालीन स्थितियों को चित्रित करती श्री सुकेश साहनी की कसौटी लघुकथा मुझे अत्यधिक प्रभावित करती है; यह रचना आधुनिक समाज में नारी जीवन की विसंगतियों को चित्रित करती है। एक और महिला अंतरिक्ष यात्री बनकर ब्रहमांड में रहस्यों को उद्घाटित करने में पुरुषों से किसी भी तरह पीछे नहीं दूसरी ओर भारतीय सन्दर्भ में बात की जाए, तो वह संस्कारों में जकड़े हुए समाज का भी निर्वहन करती है। अंतर्द्वंद्वो में घिरा उसके जीवन के अनेक पक्षों को प्रस्तुत करने में लेखक पूर्णत: सफल रहे हैं। वैश्विक विकास के दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी की इच्छा रखने वाली महिला से कंपनी की अपेक्षाओं एवं भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के मापदंडों में निरंतर उलझा हुआ महिला समाज कैसे मानसिक संघर्ष से हर दिन दो-चार होता है इस कथा के माध्यम से लेखक ने यही चित्रित करने का प्रयास किया है; जिसमे वे सफल हुए।
एक पुरुष साहित्यकार महिलाओं के मनोभावों एवं समस्याओं का ऐसा यथोचित चित्रण कर पाए; यह वास्तव में उल्लेखनीय है। इस प्रकार लेखक अपने लक्ष्य में पूर्णत: सफल हुए हैं।
कहना प्रासंगिक है कि यद्यपि भारतीय महिला शैक्षिक दृष्टि से कितनी भी सुयोग्य क्यों न हो; किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में; यदि वह अपने संस्कृति को दरकिनार नहीं करती और तथाकथित आधुनिकीकरण की अंधी दौड़ में शामिल नहीं होती ,तो वह अपनी योग्यता के अनुरूप नौकरी प्राप्त नहीं कर सकती। यदि नौकरी के हिसाब से स्वयं को ढालती है तो तथाकथित संस्कारों को खो बैठती है; और यदि संस्कारों के अनुसार चलती है ,तो वह आधुनिक युग की प्रतिस्पर्धाओं में पीछे छूट जाती है। इन्ही अंतर्द्वंदों से जूझती भारतीय महिला की अनेक क्षमताएँ तो स्वयं के मानसिक द्वंद्व एवं सामाजिक मापदंडों से जूझने में ही व्यर्थ हो जाती हैं।
लेखक अपने सन्देश को पाठक तक पहुचाने और एक नए ढंग से विचार स्फुरित करने के प्रयोग में खरे उतरते हैं। इस प्रकार के लेखन में नैरन्तर्य आवश्यक है।
1-धर्म–निरपेक्ष
रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु
शहर में दंगा हो गया था। घर जलाए जा रहे थे। छोटे बच्चों को भाले की नोकों पर उछाला जा रहा था। वे दोनों चौराहे पर निकल आए। आज से पहले उन्होंने एक–दूसरे को देखा न था। उनकी आँखों में खून उतर आया। उनके धर्म अलग–अलग थे।
प्हले ने दूसरे को माँ की गाली दी, दूसरे ने पहले को बहिन की गाली देकर धमकाया। दोनों ने अपने–अपने छुरे निकाल लिये। हड्डी को चिचोड़ता पास में खड़ा हुआ कुत्ता गुर्रा उठा। वे दोनों एक–दूसरे को जान से मारने की धमकी दे रहे थे। हड्डी छोड़कर कुत्ता उनकी ओर देखने लगा।
उन्होंने हाथ तौलकर एक–दूसरे पर छुरे का वार किया। दोनों छटपटाकर चौराहे के बीच में गिर पड़े। ज़मीन खून से भीग गई।
कुत्ते ने पास आकर दोनों को सूँघा। कान फड़फड़ाए। बारी–बारी से दोनों के ऊपर पेशाब किया और सूखी हड्डी चबाने में लग गया।
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2-कसौटी
सुकेश साहनी
खुशी के मारे उसके पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। साइबर कैफे से बाहर आते ही उसने घर का नम्बर मिलाया।
‘‘पापा!...’’ उससे बोला नहीं गया।
‘‘हमारी बेटी ने किला फतेह कर लिया! है न?’’
‘‘हाँ, पापा!’’ वह चहकी, ‘‘मैंने मुख्य परीक्षा पास कर ली है। मेरिट में दूसरे नम्बर पर हूँ !’’
‘‘शाबाश! मुझे पता था... हमारी बेटी है ही लाखों में एक!’’
‘‘पापा, पंद्रह मिनट के ब्रेक के बाद एक माइनर पर्सनॉलिटी टेस्ट और होना है। उसके फौरन बाद हमें अपाइंटमेंट लेटर दे दिए जाएँगे। मम्मी को फोन देना...’’
‘‘इस टेस्ट में भी हमारी बेटी अव्वल रहेगी। तुम्हारी मम्मी सब्जी लेने गई है। आते ही बात कराता हूँ। आल द बेस्ट, बेटा!’’
उसकी आँखें भर आईं। पापा की छोटी–सी नौकरी थी, लेकिन उन्होंने बैंक से कर्जा लेकर अपनी दोनों बेटियों को उच्च शिक्षा दिलवाई थी। मम्मी–पापा की आँखों में तैरते सपनों को हकीकत में बदलने का अवसर आ गया था। बहुराष्ट्रीय कम्पनी में एग्ज़ीकयूटिव आफिसर के लिए उसने आवेदन किया था। आज आनलाइन परीक्षा उसने मेरिट में पोजीशन के साथ पास कर ली थी।
दूसरे टेस्ट का समय हो रहा था। उसने कैफे में प्रवेश किया। कम्प्यूटर में रजिस्ट्रेशन नम्बर फीड करते ही जो पेज खुला, उसमें सबसे ऊपर नीले रंग में लिखा था–‘‘वेलकम–मिस सुनन्दा!’’ नीचे प्रश्न दिए हुए थे, जिनके आगे अंकित ‘यस’ अथवा ‘नो’ को उसे ‘टिक’ करना था...
विवाहित हैं? इससे पहले कहीं नौकरी की है? बॉस के साथ एक सप्ताह से अधिक घर से बाहर रही हैं? बॉस के मित्रों को ‘ड्रिंक’ सर्व किया है? एक से अधिक मेल फ़्रेंड्स के साथ डेटिंग पर गई हैं? किसी सीनियर फ़्रेंड के साथ अपना बैडरूम शेअर किया है? पब्लिक प्लेस में अपने फ़्रेंड को ‘किस’ किया है? नेट स‍र्फ़िंग करती हैं? पार्न साइटस् देखती हैं? चैटिंग करती हैं? एडल्ट हॉट रूम्स में जाती हैं? साइबर फ़्रेंड्स के साथ अपनी सीक्रेट फाइल्स शेअर करती हैं? चैटिंग के दौरान किसी फ़्रेंड के कहने पर खुद को वेब कैमरे के सामने एक्सपोज़ किया है?.....
सवालों के जवाब देते हुए उसके कान गर्म हो गए और चेहरा तमतमाने लगा। कैसे ऊटपटांग और वाहियात सवाल पूछ रहे हैं? अगले ही क्षण उसने खुद को समझाया–बहुराष्ट्रीय कम्पनी है, विश्व के सभी देशों की सभ्यता एवं संस्कृति को ध्यान में रखकर क्वेश्चन फ़्रेम किए गए होंगे।
सभी प्रश्नों के जवाब ‘टिक’ कर उसने पेज को रिजल्ट के लिए ‘सबमिट’ कर दिया। कुछ ही क्षणों बाद स्क्रीन पर रिजल्ट देखकर उसके पैरों के नीचे से जमीन निकल गई। सारी खुशी काफूर हो गई। ऐसा कैसे हो सकता है? पिछले पेज पर जाकर उसने सभी जवाब चेक किए, फिर ‘सबमिट’ किया। स्क्रीन पर लाल रंग में चमक रहे बड़े–बड़े शब्द उसे मुँह चिढ़ा रहे थे– ‘सॉरी सुनन्दा! यू हैव नॉट क्वालिफाइड। यू आर नाइंटी फाइव परसेंट प्युअर (pure)। वी रिक्वाअर एटलीस्ट फोर्टी परसेंट नॉटी (naughty )।’
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2 टिप्‍पणियां:

  1. लघुकथाओं पर आपकी की गई टिप्पणी गम्भीर विश्लेषण है। इस तरह के लेखन का स्वागत होना चाहिए। मेरी लघुकथा की बारीकियों पर आपने विस्तार से लिखा, इसके लिए बहुत आभारी हूँ

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    1. आपका लेखन उत्कृष्ट है, मुझे आपकी लगुकथा के विवेचन का अवसर प्राप्त हुआ मेरा सौभाग्य है।
      आशीर्वाद की आकांक्षा।

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