पेज

मंगलवार, 30 जनवरी 2018

मैं हूँ सरस होंठों की छुवन

डॉ. कविता भट्ट  

 नग्न तरुवर मैं  हूँ नहीं
शरद में ठिठुरता विकल
जिजीविषा हूँ कोंपलों की-
मैं वसंत की प्रतीक्षा प्रबल ।
 अश्रु लेकर कल खड़ा था
पीत-पतझर की राह में  
सहलाएगा गर्म सूरज
 अब भरके अपनी बाँह में ।
 बर्फ अवसादों की थी जो,
अब हँसी से गल जाएगी
 ऊषा  अब उन्मुक्त है;
 शीत-निशा  ढल जाएगी ।
 किरणें कोमल पीठ पर जब
अपनी उँगलियाँ फेरेंगी
गुदगुदाती लिपट लूँगी
जब  तीखी हवाएँ  हेरेंगी ।
 मुक्त हूँ- जड़ बंधनों से
मैं हूँ सरस  होंठों की छुवन  
दिव्य-प्रेम पथ की नर्तकी हूँ
 थिरक-थिरक करती हूँ नर्तन।
 बाँधकर आशा के घुँघरू  
      मदमस्त अब जो पग धरे
गुंजित होंगे पर्वत-शिखर
      गाएँगे प्रेम-तरु  हरे-भरे।
 -0-


सोमवार, 29 जनवरी 2018

रविवार, 28 जनवरी 2018

मैं घर लौटा’ पर मेरी प्रतिक्रिया



सुनीता काम्बोज

मैं घर लौटा कविता संग्रह श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ द्वारा रचित अति उत्तम कृति हैं । इस संग्रह पर प्रतिक्रिया देने के लिए मेरा साहित्यिक कद अभी बहुत छोटा है फिर भी मैंने अपनी नन्ही कलम से इस पुस्तक पर प्रतिक्रिया देने का प्रयास किया है । श्री हिमांशु जी स्थापित साहित्यकार हैं आपके व्यंग्य ,लघुकथाओं ,हाइकु,माहिया ,ताँका चौका ,बाल साहित्य आदि विधाओं  की अदभुत कशिश ने हमेशा पाठक मन को तृप्ति प्रदान की है ।आज ‘मैं घर लौटाकाव्य- संग्रह पढ़कर मन भाव विभोर हो गया । आपके साहित्यिक अनुभव इस  संग्रह की हर रचना से  झरता हुआ प्रतीत होते हैं  । अनुभव ,भावों व शिल्प की सुगंध से परिपूर्ण ये रचनाएँ नवोदित रचनाकारों के लिए मार्गदर्शन का कार्य करेंगी ।
द्य के साथ- साथ पद्य पर इतनी धीरता व गम्भीरता से सृजन करना साधरण बात नहीं है । हर विधा में पूर्णता आपकी विलक्षण प्रतिभा को दर्शाती  है। जब मैं मैंने इस संग्रह की प्रथम रचना पढ़ी तो ऐसे लगा मानो काव्य- सरोवर के कमल पुष्पों को स्पर्श कर लिया हो । पहली रचना के कुछ अंश-
अन्धकार ये कैसा छाया
सूरज भी रह गया सहमकर
कवि मन के ये उद्गार पढ़कर आशाओं और साहस का समन्दर आगे तैरने लगा अगले बन्ध में जैसे अँधेरों की आँख में आँख मिलाकर जब कवि ने  यह  कहकर मन  गर्व और  उत्साह से भर दिया-
दरबारों में हाजिर होकर,गीत नहीं हम गाने वाले
चरण चूमना नहीं है आदत,ना हम शीश झुकाने वाले
मेहनत की सूखी रोटी भी,हमने खाई है गा- गाकर
आज कवि वर्ग के लिए सार्थक सन्देश देते हुए कवि ने मेहनत को अपनी पतवार बनाया है । ये रचनाएँ जिस पाठक तक जाएँगी उसके अंतर्मन को अवश्य छू लेंगीं ।
खुद्दारी की महक और सकारत्मक दृष्टिकोण रखती इस कविता  में जिस अंधकार को सूरज भी सहम गया उसे  चुनौती दे कर निराश मानवता में साहस भरा हैअपना मन,अमलतास , आजादी है सभी रचनाओं का सौन्दर्य अपनी और आकर्षित करता है-
गुंडे छूटे,जीभर लूटे, आजादी है
छीना चन्दा,अच्छा धन्धा,आजादी है
आज पुजारी,बने जुआरी ,आजादी है
ढोंगी बाबा ,अच्छा ढाबा ,आजादी है
ऐसा लगता है इस रचना में आज के परिवेश की तस्वीर खींच दी हो,कवि ने बड़ी निर्भीकता से वर्तमान स्थिति पर प्रहार किया है । यही सच्चे रचनाकार की पहचान है कि वो समाज और सत्ता जो दर्पण दिखलाते  रहें -
रात और दिन
काम ही काम
आराम न भाया
मेहनतकश जीवन की कहानी जीवन की कशमश, व्यकुलता और पूर्णता हर रंग इस रचना में समाहित मिला। आराम न भाया रचना जीवन की किताब जैसी लगती है । संदेशात्मक, प्राकृतिक सौन्दर्य, गहन संवेदना,रागात्मकता  से परिपूर्ण उत्कृष्ट रचनाएँ मन पर गहरी छाप छोड़ती हैं ।ऐसे लगता है ये कविता जीवन की कड़क धूप में ठंडी छाँव प्रदान कर रही हैं ।
मानवता और दानवता दोनों मानव मन में विद्यमान है ये निर्णय मानव को लेना है कि उसे किस रास्ते पर जाना है । रचना का ये  बन्ध हृदय यही बात उजागर कर रहा है-
मानव और दानव में यूँ तो,
भेद नजर नहीं आएगा
एक पोंछता बहते आँसू ,
जी भर एक रुलाएगा
आज मनुष्य एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में यही सब कर रहा है । वास्तविकता यही है की केवल कर्मों से  ही मानवता का अनुमान लगाया जाएगा । मानव और दानव का अंतर केवल उसके कर्म ही निर्धारित करते हैं  वही उसे एक दूसरे से भिन्न करता है।
संस्कार और परम्पराएँ ,रिश्ते की गरिमा हमे जीवन के सही अर्थ समझाते हैं तुम बोना काँटे, तुम मत घबराना,दिया जलता रहे सभी रचनाएँ  जीवन की सच्चाई से रू--रू करवाती हैं ।रचनाओं की लयबद्धता उन्हें जिह्वा पर स्थापित कर देती है ।
कवि के ह्रदय में विरह के बाद मिलन का सुख और विरह की पीड़ा इस रचना में समाई हुई है-
कितना अच्छा होता जो तुम
यूँ वर्षो पहले मिल जाते
सच मानों मन के आँगन में
फिर फूल हजारों खिल जाते
ख़ुशबू से भर जाता आँगन
प्रसन्नता में छुपी उदासी का संजीव चित्रण इस कविता की सुंदरता को कई गुना कर गया । रचना में मिलन सुख और वेदना दोनों रूप है । विलम्ब के उपरांत मिलन का सुख भी विरह के दर्द नहीं भुला पाता ।
रिश्तों से ही जीवन आनन्दमय  होता है बहन भाई के पावन स्नेह की डोर उन्हें आजीवन बाँधे रखती है ये निच्छल प्रेम अतुलनीय है ।
सारे जहाँ का  प्यार हैं बहनें
गरिमा रूप साकार है बहनें
बँधा रेशमी धागों से जो
अटूट प्यार का तार है बहनें
कवि के इन भावों में जैसे सारे संसार का सुख समा गया हो । रिश्तों का माधुर्य, सुकोमलता,आत्मीयता स्नेह की वर्षा कर रही  है । गुलमोहर की छाँव ,जंगल जंगल रचनाएँ  एक बार पढ़कर बार बार पढ़ने को मन करता है । यही छंद सौन्दर्य का आकर्षण होता है । पुरबिया मजदूर कविता के माध्यम से जनमानस मजदूर वर्ग की कठिनाइयों और पीड़ा को  महसूस कर रहा है । यही इस संग्रह की सफलता है कि रचना जिस भावना से रचना लिखी गई उस उद्देश्य की पूर्ति हो रही है ।
मेरी माँरचना के एक एक शब्द में माँ की छवि नजर आती है ।
चिड़ियों के जगने से पहले
जग जाती है मेरी माँ
माँ का स्नेह ममता , माँ की  मनोभावना मैं  इस रचना को माँ की तस्वीर कहूँगी । माँ को कवि ने माँ को सबसे बड़ा तीर्थ कह कर जैसे कविता से माँ की आराधना की हो  मैं कवि की इस भावना को नमन करती हूँ ।
सुख दुख जीवन की गाड़ी के पहिए हैं;  परन्तु कवि ने दुःख और अँधेरे से लड़ने का साहस इस कविता के माध्यम से दिया है जो सरहानीय है ।
अँधियारे के सीने पर हम
शत शत दीप जलाएँ
दिल में दर्द बहुत है माना
 फिर भी कुछ तो गाएँ
कवि कहते हैं निडर होकर चलने से ये अंधकार भी रौशनी में बदल जाएगा । चाहे दुःख की नदी लम्बी है, पर आशा और विश्वास  की पतवार से मंजिल मिलनी निश्चित है । कवि ने  निराश मानव के ह्रदय में आशा भर कर निरन्तर पथ पर चलने को प्रेरित कर रहा है ।
इस रचनाओं की मधुरता ,गेयता, पाठक के मन तक पहुँचने में सफलता प्रदान करती हैं ।
यह संग्रह पाठक वर्ग में एक अलग पहचान रखता है । आपकी लेखनी ऐसे ही निरन्तर चलती रहे इसी मंगलकामना के साथ हार्दिक बधाई ।
-0-
मैं घर लौटा ( काव्य -संग्रह):रामेश्वर काम्बोजहिमांशु’ ,पृष्ठ : 184, मूल्यः 360 रुपये, संस्करण :2015, प्रकाशक : अयन प्रकाशन , 1/20 , महरौली नई दिल्ली-110030
-0-




शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

आतंक के हवाले माँ

डॉ.कविता भट्ट

 

सुलग रहा मानव समाज है,

झुलस रही है मानवता।

राष्ट्र हमारा जलता निशिदिन,

इस आतंक की ज्वाला में।

 

आज भारत माँ की साड़ी में,

जितने रंग हैं, उतनी गाँठें।

रेशमी, धानी चूनर में,

जितने रेशे उतने टाँके।

 

हिम-मुकुट माँ का पिघल रहा है,

आग की लपटों और बारूद की गर्मी से।

कोई पैरों पर वार कर रहा,

और कोई रक्तरंजित कर रहा भुजाएँ ।

 

कोई छेद रहा हृदय को,

और कोई अंतःकरण कुरेदे।

यह अट्टाहास विकृति का प्रलय समान,

अरे! काल की यह कटु-मुस्कान।

 

और कितने यौवन, शैशव, प्रौढ़                     

चढेंगें इस बलि वेदी पर,

कितने निरपराध भूने जाएँगे                          

इस आतंक की ज्वाला से

घर की चौखट के सटा बाहर

रख छोड़ा था हमने एक दीपक

सोचा था यह प्रस्फुटित करेगा

कुछ मंद-मुस्कुराता हुआ प्रकाश

                  

क्या करें हमारे घर को उसी से है

जलने का भय दिन रात हर पहर !

-0-

 

काश! तुम जी लेती

काश! तुम जी लेती  
प्रो0 इन्दु पाण्डेय खंडूड़ी

नन्ही -सी कली थी,
कल ही तो खिली थी।
आँखों में लिये सपने,
कैसे होंगे उसके अपने?
बिंदास अंदाज से भरी,
प्रीत-प्रेम भाव से भरी ।
एक बन्धन की स्वीकृति,
अनजाने रचती हुई कृति।
सब कुछ ठीक- ठाक था,
अनवरत- सा दिन- रात था।
धीरे- धीरे गुमशुम होती रही,
आँखों में वो चमक न रही।
किसी ने न दिया ध्यान
अपने भी बने रहे अंजान।
कभी नहीं की कोई शिकायत
किसी से  कोई नहीं शिकायत।
अनमने करती रही प्रयाण
खोजते रहे जीवन के प्रमाण।
खुला जब छुपा- सा तमाशा,
भाव उमड़े  थे तब बेतहाशा ।
आत्महत्या नोट ,खुला राज,
क्यों बेजुबान बने सब आज।
ये छद्म रूप था अपनों का,
मत देना अधिकार मेरे सपनों का।
नहीं अधिकार उन्हें अब कोई,
बेअसर थे, जब मैं फूटकर रोई।
दाह संस्कार, न करे वो स्पर्श,
जीते जी दिया जिसने भाव -दंश।
हिंसा बस मारपीट ही नहीं होती,
नैसर्गिक ख़ुशी पर रोक भी होती।
पर काश!तुम न हारती,
काश तुम जिन्दा रह लेती।
अपनी लड़ाई लड़ तो लेती,
 एक इतिहास रच तो लेती.....।
-0- प्रो0 इन्दु पाण्डेय खंडूड़ी
 (विभागाध्यक्षा,दर्शनशास्त्र विभाग,हे न ब गढ़वाल विश्वविद्यालय
श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखण्ड)


मुकद्दमा

मुकद्दमा
-डॉ.कविता भट्ट 

अरे साहेब! एक मुकद्दमा तो उस शहर पर भी बनता है
जो हत्यारा है– सरसों में प्रेमी आँख-मिचौलियों का 

और उस उस मोबाइल को भी घेरना है कटघरे में  
जो लुटेरा है– सरसों सी लिपटती हँसी-ठिठोलियों का 

हाँ- उस एयर कंडीशन की भी रिपोर्ट लिखवानी है
जो अपहरणकर्त्ता है- गीत गाती पनिहारन सहेलियों का

और उस मोबाइल को भी सीखचों में धकेलना है
जो डकैत है- फुसफुसाते होंठों-चुम्बन-अठखेलियों का 

उस विकास को भी थाने में कुछ घंटे तो बिठाना है
जिसने गला घोंटा; बासंती गेहूं-जौ-सरसों की बालियों का

लेकिन इनका वकील खुद ही रिश्वत ले बैठा है
फीस इनसे लेता है; और पैरोकार है शहर की गलियों का

ओ साहेब! आपकी अदालत में पेशी है इन सबकी 
कुछ तो हिसाब दो उन मारी गयी मीठी मटर की फलियों का 

                  -0-