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रविवार, 31 दिसंबर 2017

नई भोर की नई रीत

1-डॉ0 कविता भट्ट  

रात का रोना तो बहुत हो चुका ,
नई भोर की नई रीत लिखें अब।

नहीं ला सकता  है समय बुढ़ापा ,
युगल पृष्ठों पर  हम गीत लिखें अब ।

नहीं हों आँसू  हों नहीं  सिसकियाँ,
प्रेम-शृंगार और प्रीत लिखें अब।

दु:ख- संघर्षों  से हार न माने ,
वही भावाक्षर मन मीत लिखें अब।

समय जिसे  कभी  बुझा  नहीं  पाए

हम वह जिजीविषा पुनीत लिखें अब।

कभी हार न जाना ठोकर खाकर,
पग-पग पर वही उद्गीत लिखें अब।

काल -गति से  कभी बाधित न होंगे
आज कुछ इसके विपरीत लिखें अब।

यही समय हमारा नाम लिखेगा ,
सोपानों पर नई जीत लिखें अब।
-0-[हे0न0ब0गढ़वाल विश्वविद्यालय,श्रीनगर (गढ़वाल),उत्तराखण्ड]
 [ चित्र-रश्मि शर्मा , राँची के सौजन्य से]

बुधवार, 27 दिसंबर 2017

वीर चन्द्र सिंह ‘गढ़वाली’

वीर चन्द्र सिंह ‘गढ़वाली: स्वतन्त्रता के अद्भुत जननायक
डॉ. कविता भट्ट

हिमालय-प्रसूत विभिन्न छोटी-बड़ी जलधाराओं के अभाव में पतितपावनी गंगा की विशाल जलराशि एवं अविरलता की कल्पना करना भी निरर्थक है; किन्तु यह खेदपूर्ण है कि गंगास्नान तथा गंगा-गुणगान करते हुए जनसामान्य द्वारा उन सभी जलधाराओं का योगदान विस्मृत कर दिया जाता है। अनगिनत पहाड़ी जलधाराएँ पर्वतों के कठोर हृदय को चीरती, विशाल शिलाओं से संघर्ष करती हुई; जब अपना अस्तित्व स्वाहा कर गंगा में विलीन हो जाती हैं; तभी भागीरथी की सूक्ष्म धारा गंगा बनकर भारतभूमि को शस्यश्यामला बना पाती है। ये धाराएँ स्वयं में इतनी प्रबल
होती हैं कि पहाड़ों को चीरती हुई गर्जन-ध्वनि के साथ अपना मार्ग गहरी घाटियों के रूप में विकसित करती हैं। इनके प्रवाह को रोकना किसी के बस की बात नहीं।
भारतवर्ष का स्वतन्त्रता संग्राम भी एक पुण्य-प्रवाह ही था; जिसमें लाखों राष्ट्रभक्तों ने असीम संघर्ष करते हुए अपने अस्तित्व को स्वाहा कर दिया था। क्षेत्र, धर्म एवं जाति की परिधियों से रहित यह अनुष्ठान वस्तुतः मात्र नेतृत्व का नहीं; अपितु लिखित-अलिखित समस्त राष्ट्रभक्तों की अगाध श्रद्धा युक्त राष्ट्रभक्ति का पुण्य-प्रसाद था। इसके श्रेय के नाम पर एक दो व्यक्तियों या नेतृत्व-विशेष का महिमामण्डन उन समस्त पुण्यधाराओं रूपी राष्ट्रभक्तों का अपमान होगा; जिन्होंने अत्याचारों एवं शोषण रूपी कठोर एवं अकाट्य शिलाओं की परवाह किए  बिना निस्वार्थ भाव से अपना समस्त जीवन समाप्त करके राष्ट्र को स्वतन्त्र करवाया। राष्ट्रभक्ति की इस पुण्यसलिला को प्रवाह देने वाली अनेक धाराएँ राष्ट्र के विविध भागों से प्रवाहित हुई; जिनमें से अनेक हिमालयीय धाराएँ भी उल्लेखनीय थी; ऐसी ही प्रबल धारा थे- पहाड़ के अमर सपूत वीर श्री चन्द्र सिंह (भण्डारी) गढ़वाली। निज स्वार्थ से विमुख एवं राष्ट्र को सर्वोपरि मानने वाले इस साहसी सैनिक की वीरगाथा का उल्लेख हिंदुस्तान, पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान के वर्तमान रिश्तों के सन्दर्भ में अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है। ऐसा इसलिए चूँकि तत्कालीन विकट परिस्थितियों में हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे एवं एकता का जो उदाहरण उन्होंने प्रस्तुत किया वह हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी संस्कृति के संरक्षण तथा पड़ोसी देशों को आईना दिखाने के लिए निरंतर पटल पर रहना आवश्यक है। यह बारम्बार स्मरण करवाना आवश्यक है कि किस प्रकार एक हिन्दू जननायक ने अपने मुसलमान भाइयों के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया और किस प्रकार जेल की कठोर यातनाएँ सहीं। परतन्त्र भारतवर्ष के इतिहास में पेशावर कांड के नाम से प्रसिद्ध यह ऐतिहासिक घटना ‘न भूतो न भविष्यति जैसी थी; चूंकि अंग्रेजी सेना में हवलदार होते हुए भी अंग्रेजी अफसरों के आदेश की अवहेलना करना अत्यंत दुस्साहसी निर्णय था। अंग्रेजी शासन फूट-डालो और राज करो की रणनीति अपनाकर हिन्दू-मुसलमान का लड़वाने पर ही आधारित था। ऐसे में मुसलमानों की विशाल जनसभा को तितर-बितर करने हेतु गढ़वाल रायफल की पलटन को जब पेशावर ले जाया गया उससे पूर्व ही गढ़वाली जी द्वारा पूरी योजना बना ली गई थी कि किस प्रकार अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिलानी हैं। उल्लेखनीय है कि उन्होंने निहत्थे मुसलमानों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया था एवं अपने साथी गढ़वाली सैनिकों को आदेश दिया कि कोई भी गोली नहीं चलाएगा। ऐसा माना जाता है कि ‘आजाद हिन्द फौज हेतु वैचारिक नींव यहीं से पड़ गई थी। बैरिस्टर मुकुन्दीलाल ने स्पष्ट रूप से कहा कि आजाद हिन्द फौज का बीज चन्द्र सिंह गढ़वाली ने ही बोया। आई0एन00 के जनरल मोहन सिंह ने भी यह माना कि पेशावर विद्रोह ने ही हमें आजाद हिन्द फौज को संगठित करने की प्रेरणा दी। गांधी जी ने नतमस्तक होकर गढ़वाली की वीरता के सम्बन्ध में कहा था
कि यदि हमारे पास गढ़वाली जैसा एकमात्र भी और वीर होता ,तब भी हम अपने देश को कई वर्ष पूर्व ही स्वतन्त्र करवा चुके होते।  
वर्तमान परिदृश्य में जब तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों हेतु राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को मानवाधिकार एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता कहकर राष्ट्र का अपमान किया जाता है; तो निश्चित रूप से अमर सपूत वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जैसी अनेक बलिदानी राष्ट्रभक्तों की आत्मा रो पड़ती होगी। जिन्हें सिर कटाना राजनीतिक चाटुकारिता के लिए सिर झुकाने से अधिक प्रिय था। गढ़वाली के स्वाभिमानी स्वभाव के कारण उनके साथ ऐतिहासिक षड़यन्त्र किया गया और इतिहास के पन्नों में उन्हें वह सम्माननीय स्थान कभी प्राप्त नहीं हो सका जिसके वे वास्तविक अधिकारी थे। यह तथ्य भारतवर्ष के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू ने उस समय स्वीकारा था; जब वे मृत्युशैय्या पर पड़े थे। सम्मान तो बहुत दूर की बात; अपितु उनको अपने जीवन के अन्तिम दिनों में अत्यंत संघर्षयुक्त जीवन निर्वाह करना पड़ा। स्वतन्त्रता के पश्चात् जब अनेक लोग झूठे-सच्चे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी बनकर मलाई चाट रहे थे; अपने जीवन के अन्तिम दौर में गढ़वाली अपने सैनिक साथियों की पेंषन हेतु संघर्ष कर रहे थे। यह लज्जायुक्त तथ्य है कि जिस अमर सपूत ने अपना जीवन देष के नाम लिख दिया उसको औपचारिक रूप से डाक टिकट एवं कुछ मार्गों के नामकरण तक समेट दिया गया। यह अत्यंत गम्भीर एवं चिंतनीय प्रश्न है कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध राजद्रोह की पहली बुलंद आवाज को इतिहास में वह स्थान क्यों नहीं दिया गया; जो दिया जाना चाहिए था। इतिहास वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली के साहस को क्यों भूल गया? इस जननायक को गुमनामी के अँधेरों में धकेलने की कोशिष क्यों की गयी? उन्होंने जो राष्ट्रवादी विचार प्रस्तुत किए थे और राष्ट्रीयता की जो परिभाषा गढ़ी थी वह तब-तब ध्वस्त होती है; जब-जब भारतवर्ष में ओछी राजनीति चमकाने हेतु राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को मानवाधिकार एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का नाम दिया जाता है। 
किसी अमर बलिदानी का औपचारिक स्मरण किया जाए अथवा न किया जाए अथवा इनके स्मरण को धर्म, जाति, क्षेत्र और सम्प्रदाय के संकीर्णताओं में उलझाकर वाद-विवाद का विषय बना दिया जाए; अथवा निज स्वार्थों हेतु कितनी भी कुत्सित राजनीति होती रहे; तथापि मातृभूमि को समर्पित इन वीरों की बलिदानगाथा स्वतन्त्र भारत की हवाओं में अनन्तकाल तक तरंगित एवं गुंजायमान रहेगी। भारतवर्ष के जनसामान्य को निरन्तर यह स्मरण रहना चाहिए कि राष्ट्रभक्ति मात्र ओछे नेतृत्व से सुर्खियों में रहने का नाम नहीं; अपितु राष्ट्रोत्थान हेतु समर्पित उन भावों एवं प्रयासों का नाम है; जो अतिसामान्य व्यक्ति से भी सम्बद्ध हैं। प्रत्येक नागरिक द्वारा निर्धारित कर्त्तव्य को स्वार्थरहित होकर एवं समर्पित भाव से किया जाय; व्यक्तिगत उन्नति के साथ ही राष्ट्र की उन्नति पर भी ध्यान केन्द्रित किया जाय; यही सर्वाेत्कृष्ट राष्ट्रभक्ति है। साथ ही जब राष्ट्र को आवश्यकता हो तो व्यक्तिगत हितों से पूर्व राष्ट्र के हितों की प्राथमिकता का चयन करते हुए; उसके लिए स्वयं को मिटा देने तक का भाव रखे। इस प्रकार का ही भाव था; भारतमाता के उन अमर सपूतों में जिन्होंने निजस्वार्थ से विमुख होकर अपने जीवन का प्रत्येक क्षण राष्ट्र को समर्पित कर दिया। इन्हीं भावों एवं प्रयासों से भरपूर अमर सपूत वीर चन्द्र सिंह गढवाली के विराट व्यक्तित्व को इस लेख के माध्यम से संक्षेप में समझने का प्रयास करते हैं। 
गढ़वाली का जन्म पौष शुक्ल, 15, सम्वत् 1948 तदनुसार 24 दिसम्बर, 18910 में विषम भौगोलिक परिस्थितियों से युक्त वर्तमान उत्तराखण्ड के पौड़ी गढ़वाल (तत्कालीन गढ़वाल) थलीसैंण तहसील के ग्राम मासी-रौणीसेरा, पट्टी चौथान में साधारण किसान श्री जाथली सिंह भण्डारी के घर में हुआ। उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र में जन्म लेने, गढ़वालियों की विशेष शूरवीरता तथा गढ़वाल रायफल का प्रतिनिधित्व करने के कारण इन्हें गढ़वाली कहा गया। उल्लेखनीय है कि गढ़वाल का कुछ क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन था एवं कुछ राजे-रजवाड़ों के अधीन था। जनता का उत्पीड़न एवं शोषण साम्राज्यतन्त्र एवं राजतन्त्र दोनों शासन-व्यवस्थाओं में चरम पर था। चन्द्रसिंह बचपन से ही क्रान्तिकारी एवं निर्भीक स्वभाव के थे और जनसामान्य के अधिकारों हेतु संघर्षरत रहे। वे अनेक असम्भव से प्रतीत होने वाले लक्ष्यों को भी अपने संकल्पों द्वारा पूर्ण कर लेते थे। उस समय राजा के सेनापतियों को गढवाली भाषा में ‘भड़कहा जाता था; जिसे हिन्दी में ‘भट्ट( योद्धा=वीर) कहा जाता है। इस प्रकार चन्द्रसिंह को इनके शौर्य एवं वीरता के कारण राष्ट्र के जनमानस द्वारा इन्हें ‘वीर उपाधि से अलंकृत किया गया। इस प्रकार इनका पूरा नाम हुआ ‘वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली। गढ़वाल की विषम भौगोलिक परिस्थिति एवं गरीबी के कारण वे औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाए ; लेकिन स्वाध्याय के द्वारा उन्होंने खूब ज्ञान अर्जित कर लिया था। वे आजीविका के लिए किशोरावस्था के दौरान श्री बदरीनाथ-केदारनाथ  के यात्रियों के साथ गुमाश्ता (गाइड) का कार्य करते थे।
              यह लिखना प्रासंगिक है कि उस दौरान गोरखा एवं गढ़वाल रायफल को उनकी वीरता हेतु जाना जाता था। सन् 1815 में गोरखाओं एवं अंग्रेजों के बीच हुए युद्ध के पश्चात् सतलुज से लेकर काली नदी तक का हिमालयी भूप्रदेश अंग्रेजों के धीन हो गया था; कुछ राजे-रजवाड़े जो थे भी वे अंग्रेजों की ही दया पर थे। इस युद्ध के पश्चात् अंग्रेजों को गोरखाओं की वीरता का अनुमान हो चुका था; इसी कारण अल्मोड़ा में प्रथम गोरखा रायफल को पलटन की तरह संगठित किया गया। 108 गोरखा बटालियनें अंग्रेजों की सेना में थी; प्रारम्भ में इन्हीं में गढ़वालियों को भी भर्ती किया जाता था; यह लगभग 80 वर्ष तक चलता रहा। उसी शताब्दी के अन्त में गढ़वालियों की सैन्य महत्ता को देखते हुए अंग्रेजों ने सन् 1897 में गढ़वालियों को गोरखा पलटन से निकालकर उनकी अलग पलटन बनाई; पलटन का नामकरण किया गया- गढ़वाल रायफल। इसका प्रशिक्षणस्थल एवं मुख्य कार्यालय था- लैंसडाउन, पौड़ी गढ़वाल; जिसे गढ़वाली में काल़ौंडांडा कहा जाता था; जिसका अर्थ होता है- पहाड़। सन् 1912 के आस-पास प्रथम विश्वयुद्ध की छाया पड़ने लगी। गढ़वाली जी के गृहजनपद में गढ़वाल रायफल का प्रशिक्षणस्थ्ल होने के कारण इनके गाँव एवं जनपद से अनेक सैनिक पलटन में भर्ती हो गए  थे और बड़े रौब से गांव में जाया-आया करते थे। गढ़वाली में भी सेना के प्रति आकर्षण हो गया और वे 11 सितम्बर, 1914 को गढ़वाल रायफल में भर्ती हो गए।
उस समय सैनिकों को कोई भी सुविधा नहीं थी; उन्हें दासों या जानवरों के समान उपयोग में लाया जाता था; सैनिकों की भावनाओं एवं इच्छाओं का कोई भी महत्त्व नहीं था। भूखे-प्यासे सैनिकों को मालगाड़ियों में भेड़-बकरियों के समान ठूँस-ठूँसकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजा जाता था। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान 1 अगस्त, 1915 में अंग्रेजों द्वारा मित्र राष्ट्रों की ओर से युद्ध करने हेतु अनेक सैकड़ों गढ़वाली सैनिकों के साथ ही गढ़वाली को भी फ्रांस भेज दिया गया। 1 फरवरी, 1916 को ये वापस लैंसडाउन आए। 1917 में अंग्रेजों ने इन्हें मेसोपोटामिया, 1918 में बगदाद भेजा गया। इनकी वीरता से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने इनकी पदोन्नति करते हुए इन्हें हवलदार बना दिया गया; किन्तु प्रमुख युद्धों के समाप्त होते ही पदावनति करते हुए पुनः इन्हें सैनिक बना दिया गया। इससे इन्होंने सेना छोड़ने का मन बना लिया; किन्तु उच्चाधिकारियों के समझाने पर ये कुछ समय का अवकाश लेकर सेना में बने रहे। इसी दौरान ये महात्मा गांधी के सम्पर्क में आए। गढ़वाली जी उस समय गोरखा टोपी पहनकर गांधीजी की सभा में गए और उन्होंने इनकी गोरखा टोपी पर चुटकी ली। तब गढ़वाली ने कहा कि इस टोपी के स्थान पर यदि आप स्वयं मुझे स्वयं गांधी टोपी पहनाएं तो मैं जीवन भर उस टोपी के मूल्यों को बनाने हेतु जान की बाजी लगाता रहूँगा। तब गांधीजी ने स्वयं ही इन्हें गांधी टोपी पहनाई और गढ़वाली ने सौगन्ध ली कि वे इसके मूल्यों की रक्षा करेंगे।
कुछ समय पश्चात् इनकी बटालियन को बजीरिस्तान भेजा गया और पुनः इनकी पदोन्नति करते हुए इन्हें मेजर-हवलदार बना दिया गया। उस समय पेशावर भी स्वतन्त्रता संग्राम का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बना हुआ था और प्रायः पठानों की जनसभाएँ यहाँ पर हुआ करती थी। अंग्रेज इन आन्दोलनों को कुचलने के लिए पूरा प्रयास कर रहे थे। हिन्दुओं और मुसलमानों को आपस में लड़वाने के लिए वे गढ़वाल रायफल के गढ़वाली हिन्दू सिपाहियों को रणनीति के तहत पेशावर ले जाया गया था। अंग्रेज कमांडेंट द्वारा चन्द्रसिंह गढ़वाली एवं नारायण सिंह गुसाई आदि को बार-बार यही समझाया गया था कि 2 प्रतिशत मुसलमान 98 प्रतिशत हिन्दुओं के देवी-देवताओं को गाली देते हैं, उनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटते हैं, और हिन्दू उसे सहन करते हैं; इसलिए गढ़वाल रायफल द्वारा मुसलमानों का सफाया करने के लिए गढ़वाल रायफल को वहाँ ले जाया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि पेशावर कांड मात्र एक भावुकताजन्य सैन्य-विद्रोह नहीं अपितु चन्द्र सिंह गढ़वाली एवं नारायण सिंह गुसाईं जैसे साहसी व्यक्तियों का योजनाबद्ध प्रयास से उपजा एक ऐसा विद्रोह था जिसने अंग्रेजी साम्राज्यवाद की नींव हिला दी थी और यह बता दिया था कि यदि हिन्दू-मुसलमान एकता के होते हुए वे भारत को अब अधिक समय तक अपने कब्जे में नहीं रख सकेंगे। इस विद्रोह के लिए चन्द्र सिंह गढ़वाली ने खतरों से खेलते हुए एक लम्बी तैयारी की थी और अंग्रेजों की ही सेना में नौकरी करते हुए उन्हीं को सेंध लगा दी थी। इसके लिए चन्द्रसिंह गढ़वाली एवं नारायण सिंह गुसाईं छिपकर बार-बार स्वतन्त्रता सेनानियों की सभाओं में कही  गई बातें सुनकर तथा तदुपरान्त विमर्श करके विद्रोह की रणनीति तैयार करते रहे। वैसे भी 1929-30 राजनीतिक हलचल का वर्ष था। 1929 में रावी के तट पर पूर्ण स्वराज्य की घोषणा की गयी। सविनय अवज्ञा आन्दोलन चल रहा था। लाहौर जेल में भारतीयों ने 63 दिन से भूख-हड़ताल की हुई थी तथा यतीन्द्रदास के बलिदान से देश उबल रहा था। भगतसिंह, राजगुरु एवं सुखदेव को फांसी दे दी गयी थी। चटगाँव में क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजों के हथियार लूटकर, दिल्ली में वायसराय की गाड़ी को बम से उड़ाने की कोशिश आदि जैसी घटनाओं से अंग्रेजों को खुली चुनौती मिली थी। 12 मार्च, 1930 को गांधी के डांडी मार्च ने देश भर में उबाल ला दिया था।
इन्हीं सब घटनाओं के बीच जब 23 अप्रैल, 1930 को गढ़वाली सहित 72 गढ़वाली सैनिकों को कैप्टेन रिकेट के नेतृत्व में पेशावर भेजा गया। वहाँ पर खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में एक आम जनसभा हो रही थी; जिसमें बड़ी संख्या में पठान उपस्थित थे। ये सभी गांधी जी और मलंग बाबा की गिरफ्तारी का विरोध कर रहे थे। अंग्रेज इस सभा में एकत्र आंदोलनकारियों को बल प्रयोग करके तितर-बितर करना चाह रहे थे। चन्द्र सिंह गढवाली कैप्टेन की बगल में ही खड़े थे। कैप्टेन ने सभा में उपस्थित निहत्थे पठानों पर गोली चलाने का आदेश दिया, ‘गढ़वाली फायर; लेकिन ठीक उसी समय चन्द्र सिंह गढ़वाली ने गरजते हुए कहा, ‘गढ़वाली सीज फायर। गढ़वाली जी ने अपनी पलटन के सैनिकों को पहले से ही समझाया हुआ था कि निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोली मत चलाना। उनका आदेश मानते हुए सैनिकों ने अपनी बन्दूकें नीचे कर ली। कैप्टेन को डाँटते हुए चन्द्र सिंह गढ़वाली ने कहा,  ‘हम निहत्थों पर गोली नहीं चलाते।” यह अंग्रेजों के साम्राज्यवाद को किसी भारतीय सैनिक की खुली चेतावनी थी; वे आग-बबूला हो गए। 13 जून, 1930 को मिलिट्री कोर्ट की एबटाबाद स्थित छावनी के फैसले के उपरान्त; राजद्रोह का अभियोग लगाकर  हवलदार चन्द्र सिंह गढ़वाली को मृत्युदण्ड दिया गया। इस केस की पैरवी गढ़वाल के तत्कालीन प्रसिद्ध वकील बैरिस्टर मुकुन्दीलाल ने की थी; उन्होंने दलील दी कि चन्द्र सिंह गढ़वाल के जननायक हैं; यदि उन्हें फाँसी दी गयी तो विरोधस्वरूप गढ़वाल में क्रान्ति हो जाएगी। उनकी इस पैरवी से इस सजा को 14 वर्ष के आजीवन कारावास में बदल दिया गया। इन्हें अपमानित करते हुए इनके शरीर से फाड़-फाड़कर वर्दी को अलग किया गया। गढ़वाली की पूरी सम्पत्ति भी जब्त कर ली गयी। उनकी पूरी पलटन को पेशावर के एबटाबाद में नजरबंद कर दिया गया। गढ़वाली पलटन के सभी सैनिकों का कोर्ट मार्शल करके लम्बी सजाएँ दी गईं।  गढ़वाली को तुरन्त एबटाबाद जेल भेज दिया गया। चन्द्र सिंह गढ़वाली ऐबटाबाद, डेरा इस्माइल खान, बरेली, नैनीताल, लखनऊ, अल्मोड़ा एवं देहरादून की जेलों में बन्द रहते हुए असीम यातनाएँ झेलते रहे। इसी दौरान उनकी भेंट नैनी सेन्ट्रल जेल में राजबंदियों एवं लखनऊ जेल में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से हुई; नेताजी भी गढ़वाली से अत्यंत प्रभावित हुए। गढ़वाली अत्यंत निर्भीक थे एवं कहते थे कि बेड़ियाँ तो मर्दों का जेवर होती हैं। इस प्रकार कठोर यातनाएँ झेलते हुए 11 वर्ष, तीन महीने एवं 18 दिन जेल में रहने के बाद; उन्हें 26 सितम्बर, 1941 को रिहा कर दिया गया। रिहाई के बाद वे गांधीजी आदि के साथ इलाहाबाद, वर्धा आदि स्थानों पर रहे। 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान उत्साही नौजवानों द्वारा इन्हें अपना कमाण्डर इन चीफ नियुक्त किया गया। इनके साथ गढ़वाल के डॉ0 कुशलानन्द गैरोला को डिक्टेटर बनाया गया। इस आन्दोलन के दौरान पुनः इन्हें गिरफ्तार करके सात वर्षों के लिए जेल भेज दिया गया। अंग्रेजों ने विशेष रणनीति के तहत इन्हें 1945 में ही छोड़ दिया गया; किन्तु गढ़वाल में इनका प्रवेश प्रतिबन्धित कर दिया गया। इसी दौरान वे आर्यसमाजी हो गए तथा कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित रहने के कारण कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के रूप में सामने आए।
       यह आश्चर्यजनक एवं दुःखद है कि परतन्त्र भारतवर्ष में जो व्यक्ति अंग्रेजों के साम्राज्यवाद से लड़ता रहा हो; उसे देश की स्वतन्त्रता के बाद भी अपनी क्रान्तिकारी विचारधारा का खमियाजा भुगतना पड़ा। स्वतन्त्रता के उपरान्त उन्होंने गढ़वाल क्षेत्र में प्रवेश किया तो आम जनमानस ने अनेक स्थानों पर उनका भव्य स्वागत किया गया; किन्तु जब उन्होंने जब जिला बोर्ड का चुनाव लड़ना चाहा तो भारत सरकार ने उन पर पेशावर कांड में सजायाफ्ता होने का आरोप लगाकर उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया। क्या एक स्वाधीनता सेनानी का यही हश्र था। जब ये रिहा हुए तो इन्होंने पौड़ी विधानसभा से चुनाव लड़ा ;लेकिन कांग्रेस से हार गए। इन्होंने कभी भी किसी भी लाभ के लिए राजनीतिज्ञों की चाटुकारिता नहीं की, न ही किसी के आगे झुके; जिसका प्रतिफल यह हुआ कि इन्हें स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी जेल जाना पड़ा। जनसामान्य के अधिकारों के लिए ये हमेशा लड़ते रहे। टिहरी जनपद को राजशाही से मुक्त करवाने के आंदोलन में भी इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। गढ़वाली ने एक अलग पहाड़ी राज्य का सपना भी सँजोया था। उत्तराखण्ड उसी विचारधारा से प्रसूत है; लेकिन उनके सपनों का उत्तराखण्ड शायद ही बन पाए। इस प्रकार आजीवन राष्ट्र को समर्पित इस योद्धा का अत्यंत संघर्षमय स्थितियों में 1 अक्टूबर, 1979 को निधन हो गया।
आतंकवाद एवं वैमनस्य से जूझते हिंदुस्तान के भीतरी-बाहरी-पड़ोसी-वैश्विक जनमानस के लिए गढ़वाली का जीवन सौहार्द के सुरभित झोंके के समान है। उनके जीवन से प्रेरणा लेकर धर्म, जाति, क्षेत्र एवं सम्प्रदाय के गर्म तवे पर रोटी सेंकने वाले राजनेताओं को वास्तविक राष्ट्रभक्ति की परिभाषा समझनी चाहिए। उन्हें आत्म-विश्लेषण करते हुए; तोड़ने की राजनीति से ऊपर उठकर देशहित के लिए सोचने का भाव विकसित करना चाहिए।

शनिवार, 2 दिसंबर 2017

कर्मयोगी कलाम

डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री

ऐसे मनुष्य पृथ्वी पर कम ही जन्म लेते हैं, जिनको उनकी मेहनत, लगन, ईमानदारी, सादगी एवं कर्मठता आदि के लिए मात्र अपने देश में ही नहीं समस्त संसार में पूजा जाता है। ऐसे व्यक्ति जो निर्धन या साधारण
परिवार में जन्म लेकर देश के राष्ट्रपति जैसे सर्वश्रेष्ठ पद पर सुशोभित होते हैं, किन्तु पद एवं प्रतिष्ठा के लालच से रहित उतनी ही सादगी के साथ जीवन व्यतीत करते हैं, वास्तव में ये सच्चे कर्मयोगी होते हैं। कलाम के रूप में एक वैज्ञानिक का वैयक्तिक हितों से दूर होकर सामाजिक समर्पण भाव सीख लेने लायक है। ऐसे ही महान कर्मयोगी मिसाइलमैन श्री ए पी जे अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर, 1931 को तमिलनाडु राज्य के पवित्र तीर्थ रामेश्वरम स्थित धनुषकौड़ी नामक गाँव में एक निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार में हुआ। इनका पूरा नाम अबुल पाकिर जैनुलाबदीन अब्दुल कलाम था। इनके पिता जैनुलाब्दीन थे एवं माता का नाम आशियम्मा था। वे दोनों ही धर्मपरायण और दयालु थे।  वे पढ़े लिखे तो नहीं थे किन्तु उनके दिए हुए संस्कारों ने कलाम को एक अनुशासित एवं नैतिक व्यक्ति बनाया; कलाम पर उनके पिता के संस्कारों का सबसे अधिक प्रभाव था। उनके पिता हिन्दू तीर्थ यात्रियों के के लिए मल्लाहों को नाव किराये पर देते थे।
कलाम के परिवार में उनके दादा-दादी तथा माता-पिता आदि सभी उदार प्रवृत्ति के थे। वे हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही धर्मों की परम्पराओं में भागीदारी करते थे। उनकी दादी प्रत्येक रात को सोने से पूर्व उन्हें भगवान राम एवं पैगम्बर मोहम्मद की कहानी सुनाया करती थी । रामेश्वरम तीर्थस्थल में तालाब के बीचो-बीच सीता-राम विवाह का आयोजन प्रत्येक वर्ष  किया जाता था और उस समारोह के लिए उनके पिता विशेष प्रकार की नावों की व्यवस्था किया करते थे।
प्रारम्भ में परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक ही थी, किन्तु बाढ़ में जमीन बह जाने के कारण परिवार पर आर्थिक संकट आ गया था। बहुत बड़े संयुक्त परिवार के एक सदस्य होने के नाते कलाम की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। ये परिवार में सबसे छोटे थे, जैसे-जैसे ये बड़े होते रहे इनकी पढाई के प्रति रूचि तथा जिज्ञासा बढती चली गयी। कलाम को पांच वर्ष की अवस्था में रामेश्वरम के पंचायती प्राथमिक विद्यालय में प्राथमिक शिक्षा के लिए भर्ती करवा दिया गया। उनके एक शिक्षक इयादुराई सोलोमन ने उन्हें शिक्षा दी कि जीवन में सफलता तथा अनुकूल परिणाम के लिए तीव्र इच्छा, आस्था एवं अपेक्षा इन तीनों की आवश्यकता होती है तथा इन पर पूरा प्रभुत्व होना चाहिए। इसी शिक्षा को कलाम ने आजीवन अपने पल्ले बाँध लिया। रामेश्वरम मंदिर उनके घर से कुछ ही दूर था और मंदिर के पुजारी उनके पिता के अच्छे मित्र थे। कलाम प्राय: मंदिर में घंटो बैठे रहते थे और धर्म एवं नैतिकता सम्बन्धी चर्चाएँ सुना करते थे।
कलाम जब प्राथमिक विद्यालय में कक्षा पांच के छात्र थे तो उनके एक सहपाठी रामानंद शाश्त्री थे। कलाम मुसलमान होने के नाते टोपी पहना करते थे एवं रामानंद शास्त्री जनेऊ आदि पहनते थे। दोनों कक्षा में अगली पंक्ति में बैठते थे; विद्यालय के एक हिन्दू शिक्षक ने कलाम को मुसलमान होने के कारण पीछे बैठ जाने को कहा। कलाम को बहुत बुरा लगा; किन्तु शिक्षक का आदेश होने के कारण  उन्होंने उनकी आज्ञा का पालन किया और वे पीछे जाकर बैठ गये। इस घटना से उनके सहपाठी रामानंद शास्त्री को बहुत ख़राब लगा और दोनों ने सारी घटना घर में आकर लक्ष्मण शास्त्री को सुनाई। लक्ष्मण शास्त्री ने अगले दिन शिक्षक को बुलाकर बहुत डांटा की वे हिन्दू-मुस्लिम विद्यार्थियों में इस प्रकार का वैमनस्य न फैलाएं। लक्ष्मण शास्त्री ने शिक्षक को कहा की या तो वे घटना के लिए क्षमा मांगे या फिर विद्यालय छोड़ कर चले जाएँ। लक्ष्मण शास्त्री के इस रवैये के कारण शिक्षक में धीरे-धीरे बदलाव आ गया और उन्होंने सभी छात्रों के साथ सौहार्द पूर्ण व्यवहार करना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार कलाम के व्यक्तित्व में भी यही धर्मनिरपेक्षता एवं उदारता समाहित हो गई ।
 बचपन में गरीबी के कारण उन्हें अपनी पढाई तथा परिवार के खर्च के लिए अखबार बेचने का कार्य भी करना पड़ा। प्राइमरी स्कूल के बाद कलाम ने श्वार्ट्ज हाईस्कूलरामनाथपुरम में प्रवेश लिया। वहाँ की शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने 1950 में सेंट जोसेफ कॉलेजत्रिची में प्रवेश लिया। वहाँ से उन्होंने भौतिकी और गणित विषयों के साथ बी.एस-सी. की डिग्री प्राप्त की। अपने अध्यापकों की सलाह पर उन्होंने 1958 में स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए मद्रास इंस्टीयट्यूट ऑफ टेक्ना्लॉजी (एम.आई.टी.)चेन्नई का रूख किया। वहाँ पर उन्होंने अपने सपनों को आकार देने के लिए एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग का चयन किया।
इसी दौरान उनकी बहिन ने उनकी पढाई को आगे जारी रखने के लिए अपने हाथ की सोने की चूड़ियाँ तक बेच डाली थीजिससे फीस न होने के कारण कलाम को पढाई न छोड़नी पड़े।   जब इंजीनियरिंग के अंतिम दिनों में कलाम अपने किसी प्रोजेक्ट पर कार्य कर रहे थे तो उनके शिक्षक ने उन्हें उनका प्रोजेक्ट पूरा करने के लिए मात्र तीन दिन का समय दिया नसे कहा गया यदि  वे ऐसा न कर सके तो उनकी छात्रवृत्ति रोक दी जाएगी  कलाम ने यह कार्य निर्धारित समय में पूरा कर दिखाया। उनके शिक्षक इस कार्य से बहुत खुश हुए और कहा कि तुम्हे जन बूझकर ऐसा लक्ष्य दिया गया जिससे तुम अभियंता के जीवन में आने वाली कठिनाइयों को समझ सको। कलाम ने 1958 में मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी से स्नातक की उपाधि प्राप्त की है। वे पायलेट बनना चाहते थे किन्तु मात्र नौ ही पद थे और उनका स्थान दसवां थाअतः वे पायलेट नहीं बन सके
               उन्होंने 1960 में भारतीय रक्षा एवं अनुसंधान संगठन को अपनी सेवा एक वैज्ञानिक एवं व्यवस्थापक के रूप में देनी प्रारंभ की। वहां पर वे पूरी लगन से अपनी सेवाएँ दे रहे थे किन्तु फिर भी उनका मन कुछ और करने की चाह में था। 1969 में उनका स्थानान्तरण भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) में हो गया। कलाम साहब सबसे पहले ऑफिस आते थे तथा सबसे बाद में ऑफिस से घर जाते थे। उन्होंने अपने काम को इतना सम्मान दिया की आजीवन अविवाहित रहकर देश की सेवा में सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। इसी समय उनके निर्देशन में स्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यान SLV3 को तैयार करके प्रक्षेपित किया गया; किन्तु यह असफल हो गया; किन्तु कलाम ने हार नहीं मानी। फिर से इस यान को तैयार किया जाने लगा। दूसरी बार इसका प्रक्षेपण सफल रहा तथा कलाम को इसके लिए भारत सरकार की और से पद्म भूषण सम्मान प्रदान किया गया। प्रोफेसर कलाम ऐसे पुरस्कार के बाद भी विनम्र बने रहे। उन में घमंड था ही नहीं और वे इसी यान की री एंट्री नाम से गोपनीय प्रयोग में लग गए; इसी का परिणाम था की भारतवर्ष को अग्नि नमक मिसाइल मिल सकी। इस प्रक्षेपण ने भारतवर्ष की सुरक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रयासों हेतु पथ प्रशस्त किया।  इसी समय कलाम को बंगलौर स्थानांतरित कर दिया गया। बहुत ही छोटी टीम के साथ कलाम ने कार्य करना प्रारंभ किया तथा PSLV के लिए दिन रात मेहनत की गयी। 1981 यह डिज़ाइन बनकर सामने आई। आज जो PSLV सफलता के झंडे गाड़ रही है, वह मूल रूप से कलाम का ही डिज़ाइन था। भारतवर्ष को सुरक्षा के लिए बहुत सी मिसाइलों की एक लम्बी सूची कलाम ने दी। इसीलिए उन्हें लोगों ने मिसाइल मैन की उपाधि दी। 
इसके उपरांत उनको 2002 में भारत का राष्ट्रपति निर्वाचित किया गया। पांच वर्ष के अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने सबसे लोकप्रिय, ईमानदार एवं कर्मनिष्ठ राष्ट्रपति की भूमिका निभाई। यह बात इससे ही सिद्ध होती है की जब कलाम के शपथग्रहण के समय उनका परिवार दिल्ली आया था तो कुछ दिन वहां पर रुका; अपने परिवार के सभी खर्चे उन्होंने अपनेआप ही किये; जबकि ये खर्चे सरकारी खर्च में जुड़ सकते थे। कलाम अविवाहित तो रहे ही; साथ ही उन्हे जमीन, मकान, कपड़े, गहने तथा रूपये आदि किसी भी भौतिक संपत्ति का लालच नहीं था। अपनी पेंशन भी वे परोपकार में ही खर्च कर देते थे। उनका कोई बैंक बैलेंस और चल-अचल संपत्ति उन्होंने नहीं जोड़ी। कपड़े आदि भी काम चलने लायक ही रखते थे।  उनका सिद्धांत था सादा जीवन उच्च विचार।  
कलाम ने साहित्यिक रूप से भी अपने विचारों को अनेक पुस्तकों में लिखा जिनका कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। साइंटिस्ट तो प्रेसिडेंट और विंग्स ऑफ़ फायर उनकी आत्मकथ्यात्मक पुस्तकें हैं, जिनमे उन्होंने अपने जीवन की कठिनाइयों तथा अपनी सफलता-असफलता आदि सभी बातों को लिखा है। इस प्रकार यह भारत के एक विशिष्ट वैज्ञानिक थेजिन्हें 40 से अधिक विश्वविद्यालयों और संस्थानों से डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्राप्त हुई। राष्ट्रपति पद के कार्यकाल के बाद कलाम अनेक प्रबंधन संस्थानों में विजिटिंग प्रोफेसर रहे तथा भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी संस्थान तिरुवनंतपुरम के कुलाधिपति भी रहे। इस दौरान उन्होंने विभिन्न विश्वविद्यालयों में सूचना एवं प्रोद्योगिकी को प्रतिस्थापित किया।  विभिन्न उल्लेखों से पता चलता है की कलाम आजीवन मुस्लिम धर्मग्रन्थ कुरान एवं हिन्दू धर्मग्रन्थ श्रीमद्भागवतगीता दोनों का ही अध्ययन करते रहे और इनमें जो भी बातें उन्हें अच्छी लगी वे उसी के अनुसार चलते रहे।  सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न सहित अनेक देशी-विदेशीं संस्थानों से अनेक पुरस्कार एवं सम्मान इन्हें प्राप्त हुए। वास्तव वे ऐसे व्यक्ति थे जिनको सम्मानित करने से संस्था या सरकार स्वयं में गर्व का अनुभव करती थी। कलाम युवाओं एवं बच्चों के बीच जाते ही रहते थे; उन्होंने कहा था कि मैं बहुत गर्व से यह तो नहीं कह सकता मेरा जीवन किसी के लिए आदर्श बन सकता है; लेकिन जिस तरह मेरी नियति ने आकर ग्रहण किया उससे किसी ऐसे गरीब बच्चे को सांत्वना अवश्य मिलेगी; जो किसी सुविधा विहीन छोटे गाँव में रह रहा हो; शायद मेरा जीवन उन्हें पिछड़ेपन और निराशा की भावना से उबरने में मदद कर सके।
 स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि कलाम ने भगवतगीता में निर्देशित मानव जीवन के सार को चरितार्थ किया। गीता में लिखा गया है कि “योग:कर्मषु कौशलम्” अर्थात इच्छा रहित होकर कुशलतापूर्वक अपने कार्यों को करना ही योग है और ऐसे योग से ही मानव का जीवन दुःख से मुक्त हो सकता है। कलाम के रूप में एक वैज्ञानिक का सामाजिक समर्पण सीखने लायक है।
27 जुलाई 2015 की शाम अब्दुल कलाम भारतीय प्रबंधन संस्थान शिलोंग  में व्याख्यान देने गये थे उसी समय व्याख्यान देते हुए ही उनको दिल का दौरा पड़ गया।उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया गयालेकिन बाद में उसी शाम इनकी मृत्यु हो गई। अपने निधन से लगभग 9 घण्टे पहले ही उन्होंने ट्वीट करके बताया था कि वह शिलोंग आईआईएम में लेक्चर के लिए जा रहे हैं। कलाम अक्टूबर 2015 में 84 साल के होने वाले थे। सोचने वाली बात यह है कि इतनी ज्यादा उम्र में भी वे कितने सक्रिय थे। उनके जीवन का आदर्श था- कर्म ही पूजा है।

-0-हे न ब गढ़वाल विश्वविद्यालय,श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड
mrs.kavitabhatt@gmail.com


भारतीय दर्शन परंपरा : सार-संक्षेप

 डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री    भारतीय दर्शन परंपरा : सार-संक्षेप  
            विश्वगुरु की उपाधि से विभूषित भारत की सभ्यता जितनी प्राचीन है; उतना ही प्राचीन है यहाँ का दर्शन भी है या ऐसा कहा जाए कि दर्शन यहाँ के मूल में रचा बसा है। संस्कृत की दृश धातु से व्युत्त्पन्न दर्शन शब्द का अर्थ है- देखना- दृश्यते अनेन इति दर्शनम् अर्थात् जिसके माध्यम देखा
जाए वह दर्शन है। इस प्रकार दर्शन सामान्य ढंग से देखना  नहीं अपितु गहन चिंतन का पर्याय है। दर्शन भारतवर्ष के लिए कोई अदभुत क्रिया नहीं अपितु यहाँ के आबालवृद्ध में रचा बसा है। प्राकृतिक संशाधनो के अनुकूलन के कारण मूलभूत आवश्यकताओं की परिधि से उच्च स्तर का बैद्धिक चिंतन प्रारंभ से ही यहाँ के जनमानस में बसा रहा। अर्थात रोटी, कपड़े और मकान जैसी सामान्य सोच का दास यहाँ का जनसामान्य भी नही रहा तो फिर दार्शनिक चिन्तन में निरत महान विभूतियों की तो बात ही निराली है । सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी हमेशा एक मनीषी की भांति चिंतन में व्यस्त रहा। इसी  का प्रभाव है की यहाँ का सामान्य बालक भी नचिकेता के रूप में भी उपनिषद जैसी दर्शन परम्परा का माध्यम बना। आज वेदों, उपनिषदों एवं श्रीमदभगवद्गीता को समस्त विश्व की अनेक भाषाओँ में अनूदित करके उन्हें समझने का प्रयास किया जा रहा है; किन्तु आशचर्यजनक कि इनके मूल में उपस्थित गूढ़ निहितार्थ तक पहुँच पाना आज भी पूर्ण रूप से संभव नही हो सका। विदेशी आक्रमणों में बार- बार यहाँ के ग्रंथो को जलाकर मिटाये जाने पर भी यहाँ के ज्ञान-विज्ञान को समाप्त नहीं किया जा सका। वस्तुत: यह कभी समाप्त किया ही नही जा सकता
              वृक्ष कट-कट कर बढ़ा है, दीप बुझ-बुझ कर जला है”
 कुछ प्रारंभिक प्रश्न ऐसे थे जिनसे दर्शन का प्रादुर्भाव हुआ जैसे- मैं कौन हूँ, मेरा जन्म किस कारण हुआ, मैं कहाँ से आया, क्यों आया तथा  कहाँ जाऊँगा, इसके कारण मनुष्य यह भी सोचने लगा कि क्या मेरा लक्ष्य भी पशु-पक्षियों के सामान शयन, भोजन और मैथुन ही है या इससे कुछ अलग इन सभी प्रश्नों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण प्रशन था की जीवन के दुखों से मुक्ति का उपाय क्या हो सकता है ये दुःख मात्र मूलभूत आवश्यकताओं से सम्बंधित नही अपितु आत्यंतिक प्रकृति  से सम्बन्धित थे।
             दु:खों के निवारण हेतु प्राकृतिक शक्तियों की उपासना का क्रम प्रारंभ हुआ यही कालान्तर में वेदों की ऋचाओं के रूप में विकसित हुआ। दर्शन की परंपरा को समझना एक गूढ़ एवं जटिल विषय है, और इसके बारे में लिखना इसके विशाल जलनिधि में मात्र एक डुबकी के सामान है, किन्तु सामान्य रूप से समझने हेतु इस लेख में इसे सामान्य ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। पूरे विषय की अपेक्षा करना निरर्थक है; क्योंकि मात्र मुख्य तथ्यों का अतिसंक्षिप्त प्रस्तुतीकरण होगा।
            इस दार्शनिक परंपरा को समझने से पूर्व इसके विषय वस्तु को संक्षेप में जानना अनिवार्य है। उल्लेखनीय है की श्रेष्ठ मानवीय चिंतन दर्शन के तीन अनुभागों की सरंचना करता है- तत्त्व मीमांसा-  सृष्टि के मूलतत्त्व पर केन्द्रित चिंतन; ज्ञान मीमांसा- मूलतत्त्व को जानने की क्रिया अर्थात् ज्ञान एवं उसके साधनों का विश्लेषण तथा नीति मीमांसा- एक सुव्यवस्थित मानव समाज के निर्माण हेतु आचरणगत नियमो का विवेचन। इस प्रकार वेदों एवं तत्जनित तथा उनसे विलग समस्त दर्शन  विभिन्न शाखाओं के रूप में पल्लवित होता चला गया। यह दो प्रकार का था  वेद सिंद्धांतों से सहमत या आस्तिक दर्शन एवं दूसरा वेदों से असहमत या नास्तिक दर्शन। नास्तिक दर्शन तीन हैं- चार्वाक, जैन एवं बौद्ध तथा आस्तिक दर्शन छ: हैं- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा तथा वेदांत। इन्हें षड्दर्शन भी कहा जाता है। 
वेदकालीन परंपरा- ऐसा माना जाता है की भारतवर्ष में अन्यत्र से निवास हेतु आए लोग ,जो आर्य कहलाते हैं उनका यहाँ के मूल लोगों सभ्यता के सम्बन्ध में संघर्ष था। अपनी रक्षा उनसे समन्वय आदि हेतु आर्यों ने विशेष ज्ञान का प्रतिष्ठापन किया। यह ज्ञान देवताओं, स्तुतियों, यज्ञों, सृष्टि संरचना तथा आचारगत नियमन आदि पर केन्द्रित था। उस समय आज के समान प्रिंटिंग के साधन नहीं थे इसलिए यह ज्ञान  गुरु के समीप बैठकर सुनकर प्राप्त किया जाता था । इसे श्रुति कहा जाता था, यह ज्ञान इतने प्रामाणिक स्तर का है की यह भारतीय ही नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव समाज की धरोहर हैं। वेद चार हैं- ऋक, यजु:, साम तथा अथर्व। इनके तीन भाग- मंत्रसंहिता, ब्राह्मण और उपनिषद हैं। अनेक विद्वान इन्हें 6000 ई पू तथा अनेक इसके बाद का मानते हैं; लेकिन इनका काल लगभग १५०० ई पू निर्विवाद रूप से स्वीकार्य है।
पुराणकालीन परंपरा- अठारह पुराण वेदों द्वारा स्थापित भिन्न-भिन्न देवों की शक्तियों पर केन्द्रित, प्रत्येक देव का अद्वितीय शक्ति के रूप में प्रतिष्ठापन का प्रयास है। विश्व की पालन तथा संहार शक्ति का विष्णु-शिव आदि के रूप में यशोगान  विभिन्न पुराणों का केंद्रीय विषय रहा।
उपनिषद् कालीन परंपरा- वेदों का ही ज्ञान उपनिषदों के रूप में आगे बढ़ा।वेदों का अंतिम भाग होने के कारण इन्हें वेदांत भी कहा गया; ये वेदों का सार हैं। उप, नि: एवं सद तीन पदों से मिलकर बने उपनिषद् शब्द का अर्थ है- समीप बैठना- अर्थात ज्ञान प्राप्ति हेतु गुरु के समीप बैठना। उपनिषदों में एक ही तत्त्व के रूप में परम चेतन-ब्रह्म या ईश्वर का चिंतन, सत्य की खोज, ज्ञान की खोज, दुःख का आत्यंतिक निवारण, विशुद्ध आनंद और इसके मार्ग आदि का व्यवस्थित वर्णन है। उपनिषद् संख्या में 108 हैं तथा इनमे से भी ११ उपनिषद प्रमुख हैं, जिन पर शंकराचार्य के भाष्य उपलब्ध हैं। उपनिषदों के ही श्रेष्ठ उद्घोष हैं जो भारतीय जनमानस के चरित्र को उत्त्थान की ओर ले जाने का उद्घोष करते हैं-
                                                असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतं गमय  
महाकाव्य कालीन परंपरा- रामायण महाकाव्य एवं महाभारत के युद्ध में श्रीमद्भागवतगीता के द्वारा अधर्म पर धर्म की विजय का उद्घोष करने वाले दर्शन इसी काल के माने जाते हैं। बौद्धिक जागरूकता, स्फूर्ति, आचरण नियमन, दुःख-निवृत्ति, भगवद्भजन, कर्म, ज्ञान एवं भक्ति जैसे श्रेष्ठ मार्ग का प्रतिपादक यह दर्शन विश्व को भारत की अनमोल भेंट हैं। इसका प्रमाण यह है की रामायण एवं श्रीमद्भागवदगीता के विश्व की  विभिन्न भाषाओँ में अनुवाद हो चुके हैं और इन पर निरंतर शोध जारी हैं। 
नास्तिक परंपरा
चार्वाक दर्शन- वेदों का प्रबल विरोध करने वाले एवं भौतिकवाद के मुख्य सिद्धांतो को अपना आदर्श मानने वाले चार्वाक प्रणीत इस मत का मुख्य कथन था- जब तक जिओ इन्द्रिय सुख के लिए जिओ, चाहे ऋण लेकर ही घी पीना पड़े पीओ, मृत्यु के बाद किसने देखा, इस जीवन में खाओ-पीओ और सुख से रहो। यह दर्शन आदर्शात्मक।आचार संहिता के दृष्टिकोण से भारतीय दर्शनों के मौलिक सिद्धान्तों से किसी भी प्रकार मेल नहीं खाता।
जैन दर्शन- जिन” पद से व्युत्पन्न जैन शब्द इन्द्रियों पर विजय प्राप्ति को दु:खों से मुक्ति का मुख्य आधार मानता है। महावीर स्वामी प्रणीत इस दर्शन के समर्थक ईश्वर को नहीं मानते। मात्र अपने मत के प्रवर्तकों को तीर्थंकर कहकर उनकी उपासना करते हैं। सम्यक चरित्र, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक दर्शन को आधार मानने वाले जैन दर्शन पांच महाव्रत को मानता है- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह।
बौद्ध दर्शन- जीवन-दु:खो को देखकर वैराग्य की ओर उन्मुख एवं कर्म-उत्कृष्टता पर बल देने वाले महात्मा बुद्ध इस दर्शन के उपदेशक थे। चार आर्य सत्य- हेय (दुःख), हेतु (दुख का कारण), हान- (दुःख निवारण की संभावना) हानोपाय- दुःख निवारण का मार्ग। दुःख- निवारण के साधनस्वरूप अष्टांगिक मार्ग- सम्यक – दृष्टि, संकल्प, कर्मांत, आजीव, व्यायाम, स्मृति तथा समाधि।  
आस्तिक परंपरा
 सांख्य दर्शन- सांख्यसूत्र के रचयिता महर्षि कपिल द्वारा प्रणीत यह दर्शन ज्ञान को दुःख से मुक्ति हेतु आवश्यक मानता है।  इस दर्शन की तत्त्व मीमांसा में दो तत्त्व - प्रकृति (जड़) पदार्थ तथा पुरुष (चेतन पदार्थ या आत्मा) माने गये हैं। तीन प्रकार के दुःख- आध्यात्मिक (शारीरिक-मानसिक रोग से उत्त्पन्न), आधिभौतिक (अन्य प्राणियों- साँप।विच्छू आदि से उत्त्पन्न) तथा आधिदैविक (दैविक आपदा- बाढ़, भूकम्प आदि से उत्त्पन्न) मात्र ज्ञान से ही निवृत्त होते हैं। इसी दर्शन की तत्त्वमीमांसा से योग दर्शन का विकास हुआ। 
योग दर्शन -विश्व में भारतीय दर्शन को गुंजायमान करने वाले योगदर्शन के प्रवर्तक पातंजलयोगसूत्र  के रचयिता महर्षि पतंजलि थे। साधना को जीवन का मुख्य आधार मानने वाले इस दर्शन में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान एवं समाधि हैं। आज योगदर्शन को आसन आदि सहित स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अपनाया जा रहा है किन्तु इसके विस्तृत नैतिक तथा आत्मिक लक्ष्य हैं। यह दर्शन योगसाधना द्वारा मुक्ति या कैवल्य प्राप्ति को मुख्य लक्ष्य मानता है।  
न्याय दर्शन- न्याय सूत्र के रचयिता महर्षि गौतम इस दर्शन के प्रणेता हैं। इस दर्शन की ज्ञानमीमांसा बहुत ही समृद्ध है। यह प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द प्रमाणों के द्वारा ज्ञान प्राप्ति तथा श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन के द्वारा अपवर्ग या दुःख से मुक्ति की परिकल्पना को प्रस्तुत करता है।
वैशेषिक दर्शन- वैशेषिक सूत्र के रचयिता महर्षि कणाद द्वारा प्रणीत यह दर्शन अणु-परमाणु के सिद्धांत को प्रतिपादित करने के कारण तत्त्व मीमान्सीय दृष्टि से श्रेष्ठ है। इस दर्शन में द्रव्य, गुण तथा कर्म आदि के रूप में सात पदार्थ विवेचित किए गए। यह भौतिक ज्ञान-विज्ञान का दर्शन है।
मीमांसा दर्शन- मीमांसा का अर्थ है- पूजित विचार। जैमिनी सूत्र के रचयिता महर्षि जैमिनी प्रणीत यह दर्शन दुःख निवारण हेतु वैदिक कर्मकांड की पुष्टि करता है; जो तत्त्व तथा धर्म से सम्बन्धित विचारों पर केन्द्रित है। इसमे कर्मकांड द्वारा स्वर्गप्राप्ति के लक्ष्य को मुख्यतः प्रस्तुत किया गया है।
वेदान्त दर्शन- ब्रह्मसूत्र के रचयिता शंकराचार्य प्रणीत यह दर्शन मूलतत्त्व के रूप में एक ही तत्त्व ब्रह्म की विवेचना करता है। एक तत्त्व की व्याख्या के कारन इस दर्शन को अद्वैत वेदांत भी कहा जाता है। वेदांत के अहंब्रह्मास्मि तथा तत्त्वमसि जैसे प्रमुख सिद्धांत हैं। यह ज्ञान द्वारा मुक्ति को जीवन का मुख्य लक्ष्य मानता है।
            इस प्रकार जीवन को दुःख से मुक्त करने हेतु भारतीय दर्शन परंपरा में अनेकानेक समृद्ध शाखाएँ विकसित हुई। ये दर्शन भारतवर्ष ही नहीं विश्व को भी ज्ञान-विज्ञानं का मार्ग प्रशस्त करती रहेंगी।  उल्लेखनीय है की मात्र ये शुष्क ज्ञान की बात ही नहीं करती हैं; अपितु व्यक्ति को जीवन जीने की कला सिखाती हैं। इन दर्शनों का विधिवत् अध्ययन तथा इनमे प्रतिपादित तथ्यों का अनुगमन मानव मात्र हेतु आवश्यक है इसलिए धर्मं, जाति, संप्रदाय तथा राष्ट्रीयता जैसी परिधियों से ऊपर उठकर दर्शन को आत्मकल्याण हेतु समझना चाहिए।    

-0-राष्ट्रीय महासचिव उन्मेष,हे०न० ब० गढ़वाल विश्वविद्यालय
श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड
ई मेल- mrs.kavitabhatt@gmail.com