शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

445-ये पहली बार नहीं था

 रश्मि विभा त्रिपाठी

 


एक महाशय 

मुझसे बोले- 

अरे!

आपका क्या हाल है?

आप तो गायब ही हैं इन दिनों

कमाल है

कहाँ रहती हैं 

हवा- सी समूचे वायुमंडल में बहती हैं 

धूप- घाम सब सहती हैं

क्या कहती हैं?

कोई लेखा है?

मैं गुस्साई

ये पहली बार नहीं था

जब बी पी बढ़ने की नौबत आई

कहा- 

जी नहीं!

वो तो एक ज्योतिष ने कहा था 

कि समय के साथ- साथ 

बेटी

एक दिन उगेगी 

तेरे माथे पर

एक यायावरी की रेखा

सो घुमक्कड़ी में अनियमिता नहीं

नियमितता ही है फायदेमंद 

तू टहलने का काम कर

पर उन्हें तो सवाल अटपटे ही पसंद थे 

सो आदत से बाज नहीं आए 

फिर मुस्काए और दाग दिए

जो भी सवाल चंद थे

नहीं माने 

मारने लगे ताने

इसी बहाने 

तो फिर मैं भी ऐसा काम कर गुजर गई 

कि वे होश में आ गए

कोफ्त से भर गए

सारी उतर गई 

एकदम 

जैसे कि मर गए 

जबान खोली

मैं तपाक से बोली-

भाई साहब मैं... 

सुलेखा...

आप मुझे कोई दूसरी स्त्री समझ रहे हैं

और इतना कहकर 

धीमे से हम रोड क्रॉस कर गए

खैर!

अब वे पूछते तो नहीं

कि आपको कबसे नहीं देखा है

तबसे 

हमारी बातचीत 

बिल्कुल बंद है

पर फिर भी मन नहीं माना 

करते रहते हैं शक

कि मेरी हद है तहाँ तक

जो उनको नहीं देती हूँ 

थोड़ा भी हक

क्या करते हैं 

सवाल ही तो करते हैं

अपना भी मन हरा करते हैं

इसमें क्या बुरा 

कम से कम वे सामने से तो 

नहीं चलाते हैं मेरी छाती पर छुरा

अब उनकी नजर है जिधर 

बेशक मेरी पीठ है

तो मैं कहूँ कि बंदा ढीठ है

स्त्री की आवाज ही मधुर है

पर मेरा तो आजकल 

कुछ ज्यादा ही

बदला हुआ सुर है

हरेक आदमी का पाँव तो

मुझे यों लगता है कि जानवर का खुर है

दो सींग हैं

हाँकते डींग हैं 

पूँछ में लपेटकर अभी मुझे उछाल देंगे 

गिरूँगी, हड्डी टूटेगी तो इलाज के पैसे

वो अपने बैंक खाते से निकाल देंगे

नहीं!

मैं गिरूँगी

तो ठीक होने की दुआ भी 

अगले साल देंगे 

जब मैं ठीक हो जाऊँगी

तो ठीक होने की दुआ लेकर क्या पाऊँगी

 

वैसे ऐसा कुछ नहीं

ये मेरे मन का सारा वहम है

वो मुझे पूछ ही लेते हैं 

यही क्या कम है

मेरी तो मन:स्थिति ऐसी ही है 

उधर मेरी चिंता में घुल- घुलकर 

उनकी हालत भी वैसी ही है

आशा है वे जान जाएँगे 

तो भी

इस बात को टाल देंगे

वे इतने भले हैं 

कि मेरे लिए हर काम को 

ठण्डे बस्ते में डाल देंगे

अकेली सुनसान गली में 

घुप्प अँधेरे में 

वे ही मेरे पीछे चले हैं 

मेरी चेहरे पर लगातार 

अपनी आँखें चिपकाकर 

मेरी परेशानी को आँकते हैं

चुपके- चुपके झाँकते हैं

मैं घर में अकेली! 

कोई आहट करूँ 

तो सबसे पहले आधी रात को वे ही खाँसते हैं

मैं समझ जाती हूँ कि उनको मेरी फिक्र तो है!

अब जो है सो है!

इतना भी कोई करता है?

संसार स्त्री- पुरुष को लेकर

कोई राय बनाने से पहले क्यों नहीं डरता है?

देखें!

कब तक पाप का घड़ा भरता है

अब देखो!

हमारे घर की खिड़की में 

जो सं है

वे सुबह- सुबह बाहर निकलते ही 

उसी में से देखते हैं 

कि दरवाजा 

अब तक क्यों बंद है

कोई मेरी चौखट पर कदम रखे 

तो निरीक्षण करते हैं 

कि क्यों आया

कैसे आया?

अब दुनिया की तो बुद्धि ही मंद है

मगर 

बड़ी विवशता है 

मैं कठोर हो जाती हूँ

और उनसे कुछ नहीं बताती हूँ

चिड़चिड़ापन में

सोचती हूँ उल्टा ही

कि उनको क्या अधिकार है

उनका अपना भी तो घर- परिवार हैं

उसे सँभालें

बीबी- बच्चे पालें

वही बेतुके सवाल

मैं जबाव करारा दे देती हूँ 

मेरा ये है हाल

कि कहती हूँ

इसके अलावा भी तो 

और भी हैं बहुतेरे काम

करना- धरना कुछ नहीं

कोरे सवाल पूछने में ही 

इंसान का दुनिया में 

क्या रौशन होता है नाम?

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