शनिवार, 3 दिसंबर 2022

407-गीत

 

आचार्य देवेन्द्र देव

 


कल्पित रंग-महल में
, तुमको, सजती देख, प्रिये!

गीत हमारे, खड़े-खड़े मुस्काते रहते हैं।।

 

अर्धगुलाबी देह चन्दनी, हरियल साड़ी में,

रस-गन्धित आकाशी बिजली जैसी लगती है।

सिन्दूरी रेखा के नीचे चमकीली बिंदिया,

क्या बताएँ,झिलमिल करती कैसी लगती है?

 थिरक-थिरककर अधर, इधर, दृग के संकेत, उधर,

मन-मिलिन्द को अपने पास बुलाते रहते हैं।।

 

जब तुम थीं, तब, दिन लगते थे हुरियारों जैसे,

इन्दुमती रातें लगती थीं ज्योति-नहायी-सी।

मेरे सौभाग्यों के सीमित अँगने में तुम थीं,

विधि के द्वारा रम्य रूप की नदी बहायी-सी।

 आज तुम्हारे भुज-बन्धन के मोही प्राण, सुमुखि!

अपने ही सपनों के तन सहलाते रहते हैं।।

 

इतना सब कुछ होने पर भी है सन्तोष यही,

दुनियादारी, मन से तुमको दूर न कर पा

सौगन्धों के अनुबन्धों से मिली शक्ति, हमको,

अपना जीवन खोने को मजबूर न कर पा

 कुछ आश्वासन होते हैं ,जो पागल प्राणों को,

घंटों, दिवसों, सालों तक बहलाते रहते हैं।।

 

प्रीति-रीति के प्रणत पखेरू हम उड़ते रहते,

कस्तूरी की गन्ध लपेटे अपनी पाँखों में।

अधमुण्डित बैरागी जैसे फिरते रहते हैं,

आँज-आँज सुधियों का काजल गीली आँखों में।

 कबिरा के ढाई आखर के मठ के योगी हम,

गाँव-गली क्या, दर-दर अलख जगाते रहते हैं।।

-0-

 

 


1 टिप्पणी: