रविवार, 6 सितंबर 2020

165-विविधा

 दोहे

1-ज्योत्स्ना प्रदीप

1


हिमनद के तन सूखते
, विलय हुई है देह।

टूट रहे हैं रात-दिन, नदियों के भी नेह॥

2

तलहटियाँ अब बाँझ-सी, पैदा नहीं प्रपात।

दंश गर्भ में दे गया, कोई रातों रात॥

3

लुटी- पिटी नदियाँ कई, सिसक रहे हैं ताल।

सागर में मोती नहीं, ओझल हुए मराल॥

4

बादल से निकली अभी, बूँद बड़ी नवजात।

जिस मौसम में साँस ली, अंतिम वह बरसात।

5

नभ ने सोचा एक दिन, भू पर होता काश।

नदियाँ बँटती देखकर, सहम गया आकाश।

6

मनमौजी लहरें हुईं, भागी कितनी दूर।

सागर आया रोष में, मगर बड़ा मजबूर॥

7

देह हिना की है हरी, मगर हिया है लाल।

सपन सजाये ग़ैर के, अपना माँगे काल॥

8

पेड़ हितैषी हैं बड़े, करते तुझको प्यार।

चला रहा दिन-रात है , इन पर तू औज़ार॥

9

जुगनूँ, तितली, भौंर भी, सुख देते भरपूर।

जाने किस सुनसान में, कुदरत के वह नूर॥

10

झरनें गाते थे कभी, हरियाली के गीत।

मानव ने गूँगा किया, तोड़ी उसकी प्रीत॥

11

जबसे मात चली गई, मन-देहरी बरसात।

दो आँखें पल में बनीं, जैसे भरी परात॥

12

क़ुदरत ख़ुद रौशन हुई, बनकर माँ का रूप।

जीवन जब भी पौष-सा, माँ ही कोमल धूप॥

-0-

2- प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'

1-मुलाकात

 


नहीं है
, तो न सही



फुर्सत किसी को
,

चलो आज खुद से,

मुलाकात कर लें!

 

वो मासूम बचपन,

लड़कपन की शोख़ी,

चलो आज ताज़ा,

वो दिन रात कर लें।

 

वो बिन डोर उड़ती,

पतंगों सी ख्वाहिशें,

बेझिझक, जिंदगी से,

होती फ़रमहिशे,

 

चलो ढूँढे उनको

कभी थे जो अपने,

पिरो लाएँ, मोती-से

कुछ बिखरे सपने।

 

यूँ तो बुझ चुकी है,

आग हसरतों की,

कुछ चिंगारियाँ पर हैं

अब भी दहकती,

 

दबे, ढके अंगारों की

किस्मत सजा दें,

नाउम्मीद चाहतों को 

फिर से पनाह दे!

 

न गिला, न शिकवा,

सब कुछ भुला दें,

खुश्क आँगन में दिल के,

बेशर्त, बेशुमार,

नेह बरसा दें!!

 

चलो आज खुद से

मुलाकात कर लें.......!

-0-

2- आवारा मन

 जाने कौन से गलियारों मे

घूमता फिर रहा है,

कहो तो उससे, जो माने 

ये तो अपनी ही ज़िद पे अड़ा है!

 

होगा कुछ भी नही,

यूँही, खाक छानकर, थका लौटेगा

क्या हुआ?

क्यों हुआ?

ऐसा होता तो?

वैसा न होता तो?....

इसी गर्दिश में धक्के खाकर,

फिर चुप चाप सिमट कर बैठेगा।

 

कह कर देखूं,

शायद मान ले-

"मन, अब तू बच्चा नहीं

बड़ा हो चला है,

जो है

आज और केवल आज है,

काल की रट ने

सिर्फ 

और सिर्फ छला है!!"

-0-

3-रश्मि विभा त्रिपाठी 'रिशू'

ज्यों बूँद झर


तकिये पर गिरी

रुखसार से

हँसी याद मुझपे

कहती-क्यों तू

बिलखे विरहन

क्यों अश्रुजल

क्यों पनीले नयन

लुटा न मोती

नेह मत यूँ गिरा

चुन प्रेम बिखरा !

-0-

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत - बहुत शुक्रिया कविता जी !

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  2. प्रिय प्रीति जी एवँ प्यारी रश्मि जी की बहुत सुन्दर रचनाओं के लिए हृदय से बधाई !

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    1. धन्यवाद ज्योत्स्ना जी, एक से बढ़कर एक बेहतरीन दोहे, आपको बहुत बहुत शुभकामनाएँ!

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  3. सभी रचनाएँ बहुत सुन्दर. ज्योत्स्ना जी, प्रीति जी एवं रश्मि जी को बधाई.

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  4. मनभावन दोहे और प्यारी कविताओं के लिए आप सभी को ढेरों बधाई...|

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  5. मेरी रचनाओं को पत्रिका में स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार कविता जी!!

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