शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

इनमें खो जाऊँ

    डॉ.कविता भट्ट
ये घुँघरू बजाती अप्सराओं -सी नदियाँ
अभिसार को आतुर ये बादल की गतियाँ

बर्फीले बिछौनों पर ये अनुपम आलिंगन
सुरीली हवाओं के उन्नत पहाड़ों को चुम्बन

ये घाटी, ये चोटी ये उन्नत हिमाला
कन्या -सी कड़ी शांति लिये पुष्पमाला

कभी गुनगुनाती, कभी गुदगुदाती
धूप प्रेयसी सी उँगलियाँ फिराती

मंगल गाते वृक्ष-लताएँ लिपटे समवेत
स्वर्ग को जाती सुन्दर सीढ़ियों- से खेत

युगल-पक्षियों की प्रणय रत कतारें
मृग-कस्तूरी सी सुगन्धित अनुपम बयारें

अपनी ही प्रतिध्वनि कुछ ऐसे लौट आए
जैसे प्रेयसी को उसका प्रियतम बुलाए

इस प्रतिध्वनि में डूब ऐसे खो जाऊँ
पद-धन-मान छोड़ बस इनमें खो जाऊँ

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